Hindi, asked by mehrajkhatoon99, 7 months ago

SFO REEM X June 2001​

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Answered by mohitaustin
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Answered by rudraprasadsinha43
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पद्माकर भट्ट रीति काल के कवियों में इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ दूसरा नहीं हुआ है। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है। रीतिकाल की कविता इनकी वाणी द्वारा अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुँचकर फिर विकासोन्मुख हुई। अत: जिस प्रकार ये अपनी परंपरा के परमोत्कृष्ट कवि हैं उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी। देश में जितना इनका नाम प्रसिद्ध हुआ वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं हुआ।

पद्माकर 'तैलंग' ब्राह्मण थे। इनके पिता 'मोहनलाल भट्ट' का जन्म बाँदा में हुआ था। ये पूर्ण पंडित और अच्छे कवि भी थे, जिसके कारण इनका कई राजधानियों में अच्छा सम्मान हुआ था। ये कुछ समय तक नागपुर के 'महाराज रघुनाथ राव (अप्पा साहब)' के यहाँ रहे, फिर पन्ना के 'महाराज हिंदूपति' के गुरु हुए और कई गाँव प्राप्त किए। वहाँ से वे फिर जयपुर नरेश 'महाराजा प्रतापसिंह' के यहाँ जा कर रहे जहाँ इन्हें कविराज शिरोमणि की पदवी और अच्छी जागीर मिली। उन्हीं के पुत्र सुप्रसिद्ध पद्माकर हुए।

पद्माकर का जन्म संवत 1810 में बाँदा में हुआ। इन्होंने 80 वर्ष की आयु भोगकर अंत में कानपुर गंगा तट पर संवत 1890 में शरीर छोड़ा। ये कई स्थानों पर रहे। सुगरा के अर्जुनसिंह ने इन्हें अपना मंत्र गुरु बनाया। संवत 1849 में ये 'गोसाईं अनूपगिरि उपनाम हिम्मतबहादुर' के यहाँ गए जो बड़े अच्छे योध्दा थे और पहले बाँदा के नवाब के यहाँ थे, फिर अवध बादशाह के यहाँ सेना के बड़े अधिकारी हुए थे।

इनके नाम पर पद्माकर ने 'हिम्मतबहादुर विरुदावली' नाम की एक वीर रस की पुस्तक लिखी।

संवत 1856 में ये सतारा के 'महाराज रघुनाथ राव (प्रसिद्ध राघोवा)' के यहाँ गए और एक हाथी, एक लाख रुपया और दस गाँव पाए। इसके बाद पद्माकर जयपुर के महाराज प्रतापसिंह के यहाँ पहुँचे और वहाँ बहुत दिनों तक रहे। महाराज प्रतापसिंह के पुत्र महाराज जगतसिंह के समय में भी ये बहुत काल तक जयपुर रहे और उन्हीं के नाम पर अपना प्रसिद्ध ग्रंथ 'जगद्विनोद' बनाया।

जयपुर में ही इन्होंने अपना अलंकार ग्रंथ 'पद्माभरण' बनाया जो दोहों में है। ये एक बार उदयपुर के 'महाराजा भीमसिंह' के दरबार में भी गए थे जहाँ इनका बहुत अच्छा सम्मान हुआ था। महाराणा साहब की आज्ञा से इन्होंने 'गणगौर' के मेले का वर्णन किया था।

महाराज जगतसिंह का परलोकवास संवत 1860 में हुआ। अत: उसके अनंतर ये ग्वालियर के 'महाराज दौलत राव सिंधिया' के दरबार में गए और यह कवित्त पढ़ा -

मीनागढ़ बंबई सुमंद मंदराज बंग,

बंदर को बंद करि बंदर बसावैगो।

कहै पदमाकर कसकि कासमीर हू को,

पिंजर सों घेरि के कलिंजर छुड़ावैगो।

बाँका नृप दौलत अलीजा महाराज कबौं,

साजि दल पकरि फिरंगिन दबावैगो।

दिल्ली दहपट्टि, पटना हू को झपट्ट करि,

कबहूँक लत्ता कलकत्ता को उड़ावैगो।

सिंधिया के दरबार में भी इनका अच्छा मान हुआ। कहते हैं कि वहाँ सरदार ऊदा जी के अनुरोध से इन्होंने 'हितोपदेश' का भाषानुवाद किया था। ग्वालियर से ये बूँदी गए और वहाँ से फिर अपने घर बाँदा में आ रहे। अंतिम दिनों में पद्माकर रोगग्रस्त रहा करते थे। उसी समय इन्होंने 'प्रबोधपचासा' नामक विराग और भक्तिरस से पूर्ण ग्रंथ बनाया। अंतिम समय निकट जान पद्माकरजी गंगा तट के विचार से कानपुर चले आए और वहीं अपने जीवन के शेष सात वर्ष पूरे किए। अपनी प्रसिद्ध 'गंगालहरी' इन्होंने इसी समय के बीच बनाई थी।

'रामरसायन' नामक वाल्मीकि रामायण का आधार लेकर लिखा हुआ एक चरितकाव्य भी इनका दोहे चौपाइयों में है पर उसमें इन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई। संभव है वह ग्रंथ इनका न हो।

मतिराम जी के 'रसराज' के समान पद्माकर का 'जगद्विनोद' भी काव्यरसिकों और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है। वास्तव में यह श्रृंगार रस का सारग्रंथ प्रतीत होता है। इनकी मधुर कल्पना ऐसी स्वाभाविक और हाव भाव पूर्ण मूर्तिविधान करती है कि पाठक प्रत्यक्ष अनुभूति में मग्न हो जाता है। ऐसी सजीव मूर्ति विधान करने वाली कल्पना बिहारी को छोड़कर और किसी कवि में नहीं पाई जाती। कल्पना और वाणी के साथ जिस भावुकता का संयोग होता है वही उत्कृष्ट काव्य के रूप में विकसित हो सकती है।

भाषा की सब प्रकार की शक्तियों पर इस कवि का अधिकार दिखाई पड़ता है। कहीं तो इनकी भाषा स्निग्ध, मधुर पदावली द्वारा एक सजीव भाव भरी प्रेममूर्ति खड़ी करती है, कहीं भाव या रस की धारा बहाती है, कहीं अनुप्रास की झंकार उत्पन्न करती है, कहीं प्रशांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मनुष्य जीवन को विश्रांति की छाया दिखाती है। इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए। भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी तुलसीदास जी में दिखाई पड़ती है।

अनुप्रास की प्रवृत्ति तो हिन्दी के प्राय: सब कवियों में आवश्यकता से अधिक रही है। पद्माकर भी उनके प्रभाव से नहीं बचे हैं। अनुप्रास की दीर्घ शृंखला अधिकतर इनके वर्णनात्मक पद्यों में पाई जाती है, जहाँ मधुर कल्पना के बीच सुंदर कोमल भावों का स्पंदन है वहाँ की भाषा बहुत ही स्वाभाविक और साफ़ सुथरी है। लाक्षणिकता भी इनकी एक बहुत बड़ी विशेषता है -

पद्माकरजी की कविता के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं ,

फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोंवदै लै गई भीतर गोरी।

भाई करी मन की पद्माकर, ऊपर नाई अबीर की झोरी

छीनि पितंबर कम्मर तें सु बिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।

नैन नचाय कही मुसुकाय, 'लला फिर आइयो खेलन होरी'

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