श्रीकांत का अंतिम निर्णय क्या था उसने अंतिम निर्णय क्यों लिया
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जब से बीमारी का पता चला है, भूख ही बुझ गई है. डॉक्टर कहते हैं, कैंसर में ऐसा अक्सर होता है. क्या कहूं! कितना अभागा हूं मैं! …बचपन से रोगग्रस्त रहा. अभी जवान भी नहीं हुआ था कि पिता निकम्मे हो गए. कोई काम नहीं कोई आए नहीं. जिस उम्र में लोग सपने देखते हैं, मैंने स्कूल मास्टरी की; मां-बाप, भाई बहनों को पाला और अपनी शिक्षा पूरी की.
दिल्ली आया तो… पराजय, विफलता, पीड़ा, रोग, धोखा सब मुझसे चिपकते गए. कभी निराला की पंक्ति याद आती है ‘क्या कहूं आज जो नहीं कही, दुख ही जीवन की कथा रही’ तो कभी मुक्तिबोध की,’पिस गया वह भीतरी और बाहरी, दो कठिन पाटों के बीच.’
नहीं जानता यह डायरी जारी रहेगी या यह इसका अंतिम पन्ना होगा.
मगर इतना अवश्य कहूंगा, मैं जीना चाहता हूं.
[पृष्ठ.467, श्रीकांत वर्मा रचनावली, खंड 2, राजकमल प्रकाशन ]
11 मार्च 1986 को न्यूयॉर्क में एक अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर में जाने से पहले श्रीकांत वर्मा ने अपनी डायरी लिखी. यह उनकी डायरी का अंतिम पन्ना था. जीवन की डायरी के पन्ने के कुछ 2 महीने और फड़फड़ाये. 25 मई 1986 को स्लोन केटरिंग मेमोरियल अस्पताल,न्यूयॉर्क में जीवन-दैनन्दिनी का अंतिम सर्ग पूरा हुआ. डायरी समाप्त हुई.
‘मगध’ में सन्नाटा छा गया-
‘महाराज बधाई हो-
कोई नहीं रहा
श्रावस्ती की कोख उजड़ चुकी,
कौशाम्बी विधवा की तरह
सिर मुंडाये खड़ी है.
कपिलवस्तु फटी फटी आंखों से
सिर्फ़ देख रहा है
अवंती निर्वसन है
…
और मगध में ?
मगध में सन्नाटा है !
क्षमा करें महाराज
आप नहीं समझेंगे
यह कैसा सन्नाटा है .
[मगध- कविता संग्रह, श्रीकांत वर्मा, रचनाकाल 1984]
श्रीकांत वर्मा हिंदी की नई कविता धारा के एक बड़े नाम थे. यह और बात है कि हिंदी भाषी समाज में अपने अन्य समकालीनों के उलट उन्हें बहुत देर से जाना गया. उससे भी दुखद यह कि कम जाना गया.
वह सक्रिय राजनीतिज्ञ भी थे. जीवन के आरंभिक दौर में लोहिया से प्रभावित थे. बाद में देश के एक बड़े राजनीतिक दल से जुड़े. राज्यसभा में रहे. हिंदी के ही नहीं, तीसरी दुनिया के देशों में रचे जा रहे साहित्य के गहरे जानकार और अनुवादक, मिजाज से तीक्ष्ण-दर्शी यायावर, सिद्धांत से उत्कट मानवतावादी और शख्सियत से एक ठेठ ‘कस्बाई ‘ जो ‘मॉडर्निज़्म’ से आक्रांत वातावरण में अपने चारों सिम्त एक सच्चे आदमी को तलाशता रहा.
तलाशते तलाशते वह क़स्बाई कितनी दूर निकल गया! ‘मगध’ तक जा पहुंचा. (मगध श्रीकांत वर्मा का आख़िरी कविता-संग्रह था) घुड़सवार से पूछा- भाई मगध किधर है. मुझे मगध जाना है.
श्रीकांत वर्मा के लिए ‘मगध’ इतिहास का बिंब है. सत्ता और मनुष्य की दुर्दम महत्वाकांक्षा का प्रतीक है. वह एक शहर है और लिच्छवियों पर भारी एक विजिगीषु संस्कृति भी है. वह वर्तमान के अंतर्द्वंदों में गुंथी हुई एक निर्दोष स्मृति भी है, जो रह-रहकर आधुनिक मनुष्य के नैतिकताविहीन परिवेश के अंधकार को और गहरा देती है. सब कुछ को विडंबनामय बनाती है.