श्रीलंका में तमिलों को बेगाना पर क्यों महसूस होने लगा
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श्रीलंका की सेना ने तमिलों को अपनी ही धरती पर शरणार्थी बनाकर भारत के लिए राजनैतिक संकट और राजनयिक दुविधा पैदा कर दी है. आंखों देखी रिपोर्ट.
पूरे फौजी वेश में श्रीलंका के एक सैनिक की 10 फुट ऊंची सुनहरी प्रतिमा पूर्वोत्तर श्रीलंका के मुल्लैतिवु जिले में शीशे-सी शांत कृत्रिम झील के बीचोबीच तनी हुई खड़ी है. मशहूर सोवियत शैली में सैनिक के बाएं हाथ में श्रीलंका का लहराता झंडा और दाएं हाथ में चीनी टाइप 56-2 एसॉल्ट राइफल है और मुंह विजय के उल्लास में खुला है.
राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे ने दिसंबर 2009 में इस युद्ध स्मारक का अनावरण किया. यह स्मारक ननथीकदल लगून के तट से दो किलोमीटर से भी कम दूरी पर उत्तर में खड़ा है, जहां लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम यानी एलटीटीई के मुखिया वेल्लुपिल्लै प्रभाकरन को श्रीलंका की सेना ने 19 मई, 2009 को गोली मारी थी.
टाइगर्स के मुखिया की मौत के साथ युद्ध समाप्त हो गया. आज उसका चार मंजिला भूमिगत बंकर, प्रशिक्षण सुविधाएं और जली हुई सैनिक और असैनिक गाडिय़ां हजारों श्रीलंकाई सैलानियों के लिए नुमाइश बनी हुई हैं, लेकिन युद्ध से तबाह उत्तरी इलाके में लौटते करीब 5 लाख तमिल नागरिकों के लिए यह स्मारक सिंहली विजयनाद के प्रतीक हैं. वे बिखरी जिंदगी के सूत्र जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं. एक छोटे कारोबार के मालिक का कहना था, ‘‘वे तमिलों के साथ पराजित नस्ल जैसा व्यवहार करते हैं और हमारी गुलामी का जश्न मनाते हैं.’’ यह आदमी हाल ही में मुल्लैतिवु कस्बे में लौटा है.Sri Lanka
ए-35 हाइवे पर टाइगर्स के कब्जे में रहे पुत्थुकुडीयिरिप्पु कस्बे में जीवन सामान्य हो रहा है. महिलाएं साइकिल चलाती हैं और मोबाइल फोन पर गपशप करती हैं. यात्रियों से लदी बसें धूल भरी पथरीली सड़कों पर दौड़ती हैं, लेकिन इस सामान्य जिंदगी के पीछे मौन आक्रोश है. सड़क किनारे एक छोटे-से ढाबे में कमर तक सॉफ्ट ड्रिंक की बोतलें लगी हैं और कांच के शेल्फ में पुरानी पेस्ट्री रखी हैं. उसके सामने खड़ा एक नौजवान कहता है कि वह गृहयुद्ध का खौफ नहीं भुला सकता. अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए उसने कहा, ‘सरकार हम से कहती है कि अतीत को भूलकर आगे बढ़ो, लेकिन भूलने की उम्मीद सिर्फ तमिलों से की जाती है.’
करीब 25 साल तक प्रभाकरन की एलटीटीई ने पूर्वी और उत्तरी श्रीलंका में क्रूरता के साथ फासिस्ट हुकूमत चलाई. वह इन इलाकों को आजाद तमिल ईलम कहा करता था. टाइगर्स ने बच्चों को फौजी बना दिया, आत्मघाती बम हमलों में निपुण किया और इसके लिए गर्भवती महिलाओं और विकलांगों का भी इस्तेमाल किया. वे ऐसी अदालतें चलाते थे जिसमें कानून और इंसाफ की अवहेलना की जाती थी. असहमत तमिलों का कत्ल करते थे और सरकार के साथ 26 साल तक खूनी जंग लड़ते रहे. एलटीटीई और श्रीलंका की सेना के बीच फंसे तमिल नागरिकों ने प्रभाकरन की मौत पर चुपचाप राहत की सांस ली, लेकिन चार साल बाद एक तानाशाह के खौफ की जगह दूसरे तानाशाह के खौफ ने ले ली है.sri lanka
तमिल विदेशियों से बात करते डरते हैं और अगर करते भी हैं तो आसपास देखकर दबी जुबान में बोलते हैं. मुल्लैतिवु जिले में लौटते एक तमिल से जब हमने पूछा कि क्या हम उसके नाम और फोटो ले सकते हैं तो उसने सहमते हुए कहा, ‘मुझे डर है कि ‘अज्ञात लोग्य मिलने आएंगे.’ यह परिचय आम तौर पर फौजी खुफिया एजेंसी और सरकार से जुड़े अर्द्धसैनिक बलों के लिए दिया जाता है जो तमिल लोगों के अपहरण, हिरासत और यातना के लिए जिम्मेदार हैं.
55 साल की उदयचंद्रा मैनुएल ने हिम्मत से अपनी दुखभरी कहानी बताई. वे 11 अगस्त, 2008 की वह रात नहीं भुला सकतीं जब सादी वर्दी में चार आदमियों ने पश्चिमोत्तर श्रीलंका में मन्नार द्वीप पर उनके मछुआरों के गांव में कदम रखा. उन्होंने रोते-रोते बताया, ‘‘वे सिंहली बोल रहे थे, उन्होंने मेरे बेटे अंजन को नाम से पुकारा और साथ ले गए. मैंने आखिरी बार उसे तभी देखा था.’’ वे एलटीटीई के कब्जे वाले उत्तरी प्रांत में 25 अन्य लोगों के परिवारों के साथ मिलकर हाथों में अपने गुमशुदा रिश्तेदारों के फोटो लिए कोलंबो में संयुक्त राष्ट्र कार्यालय में ज्ञापन देने गई थीं.