श्रेष्ठी अचिन्तयत् “अस्य लघु असत्यं तु
विनाशकारि, यदि सः वृहद् असत्यम् वदिष्यति
तर्हि किम् भविष्यति?" सर्वे विचारं कृत्वा
तस्मै विपुलं धनं दत्वा स्वतन्त्रं अकरोत् ।
गृहे गत्वा सः व्यापारं आरभत, प्रसिद्धः
व्यापारी च अभूत् । प्रायः सः कथयति स्म-
"सर्वं परवशं दुखं, सर्वमात्मवशं सुखम्।"
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सेठ ने सोचा- इसका छित झूठ तो इतना विनाशकारी है,यदि वह बड़ा झूठ बोलेगा तो क्या होगा? यह सब विचार करने ज बाद उसने विपुल को धन दे कर स्वतन्त्र कर दिया। घर जा कर वह व्यापार शुरू कर दिया, और प्रशिद्ध व्यापारी हो गया। और प्रायः कहता है-
" जो सब अन्यो के वश में होता है,वह दुःख है, जो सब अपने वश में है वही सुख है"
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