शासन काल के बाद उत्तर बंगाल में राजनीतिक परिवर्तनों पर प्रकाश डालें
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एक जमाना था, जब पश्चिम बंगाल की राजनीति की दिशा यहां के कवि, लेखक, कलाकार, नाटककार और फिल्मकार तय किया करते थे, लेकिन अब हथियारों से लिखे जाते हैं बंगाल की सियासत के सफे। जब भी चुनाव आते हैं या किसी तरह की राजनीतिक उथल-पुथल होती है, तो हथियार निकल आते हैं। बंगाल में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लेकर हमेशा अनिश्चितता बनी रहती है। हर आदमी, जो राजनीति से जुड़ा हुआ है, वह इसे अपने लक्ष्यों को पूरा करने का तंत्र मानता है और इसका नतीजा होता है कि पार्टी का हर कार्यकर्ता पार्टी के भीतर आंदोलन का समर्थक है। जब भी चुनाव आते हैं, तो पार्टी का कोई न कोई बड़ा नेता अपने पुराने दल से इस्तीफा देकर नई पार्टी में शामिल हो जाता है या शामिल होने की कोशिश करता है। अभी राज्य की राजनीति में भाजपा की वजह से हलचल है, जो वहां आक्रामक तरीके से मैदान में है। न केवल उसके शीर्ष नेता लगातार राज्य के दौरे पर आ रहे हैं, बल्कि शनिवार को तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के करीबी रहे तृणमूल कांग्रेस के असंतुष्ट नेता शुवेंदु अधिकारी भाजपा में शामिल हो गए।
अब जब चुनाव की धमक सुनाई पड़ने लगी है, तो भाजपा को कई चुनौतियों का सामना करना है। सबसे बड़ी बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे जो 40 फीसदी वोट मिले थे, उसे कायम रखने के साथ-साथ और ज्यादा उपस्थिति के लिए प्रयास करना। यह एक समस्या है, क्योंकि तृणमूल कांग्रेस के साथ-साथ अन्य स्थानीय पार्टियां चुनाव में ज्यादा दबाव बनाएंगी। ऐसी स्थिति में अपनी उपस्थिति कायम रखने के साथ-साथ भाजपा के समक्ष दो विकल्प हैं। पहला, तृणमूल कांग्रेस के मतदाता समूह को तोड़ना होगा। 2019 में भाजपा ने पूर्वी मिदनापुर जिले में बहुत अच्छा नहीं किया। इस बार के चुनाव में उसे पूर्वी तथा पश्चिमी मिदनापुर में अपनी ताकत दिखानी होगी। दूसरा कि भाजपा को यह प्रदर्शित करना पड़ेगा कि तृणमूल कांग्रेस अपनी ही समस्याओं से परेशान है। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं की मौजूदगी 27 से 30 फीसदी है और यह किसी भी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। भाजपा की हर कोशिश के बावजूद यह उसकी पहुंच से बाहर है।
ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने हाल ही में कहा कि वह बंगाल में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाएंगे और उसके बाद उन्होंने यहां के मुस्लिम नेताओं से मुलाकात करनी शुरू कर दी। मुस्लिम समुदाय बंगाल की 294 विधानसभा सीटों में से 120 पर निर्णायक भूमिका अदा करता है। दूसरी तरफ राज्य में चुनाव से पूर्व भाजपा तथा तृणमूल कांग्रेस के मध्य एक नई नारेबाजी चल रही है, राष्ट्रवाद बनाम क्षेत्रवाद। भाजपा हर चुनाव में चाहे वह राष्ट्रीय हो या राज्य स्तरीय राष्ट्रवाद को हवा देती है, जबकि तृणमूल कांग्रेस क्षेत्रवाद के पत्ते फेंक रही है। बिहार के चुनाव में जैसे नीतीश कुमार ने बिहारी बनाम बाहरी का नारा दिया, ठीक उसी तरह तृणमूल प्रयास में है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कई बार भाजपा को बाहरी कहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि ‘राष्ट्रवाद बनाम क्षेत्रवाद’ का नारा 2021 के बंगाल के चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। भाजपा हिंदुत्व के नारे दे रही है, जोकि पश्चिम बंगाल के लिए नई बात है और यही कारण है कि बाहरी बनाम स्थानीय की बात उठ रही है। तृणमूल कांग्रेस ने 'मां माटी मानुष' का नारा दिया था, इसके जवाब में भाजपा कह रही है, ‘एइ बार बांग्ला, पारले तो सामला ’ यानी इस बार बंगाल रोक सको तो रोक लो।
भाजपा पिछले एक साल या कह सकते हैं, उससे ज्यादा समय से ऐसे बंगाली चेहरे की तलाश में है, जो राज्य में हिंदुत्व की राजनीति को और ताकतवर बनाए। पार्टी ने जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भी प्रचार का जरिया बनाया है और बता रही है कि वे बंगाल के सपूत थे, जिन्होंने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया। यही नहीं, केंद्र सरकार ने 150 वर्ष पुराने कलकत्ता पोर्ट को श्यामा प्रसाद मुखर्जी पोर्ट का नाम देने की मंजूरी दे दी है। भाजपा बंकिम चंद्र चटर्जी, स्वामी विवेकानंद और निर्मल चट्टोपाध्याय जैसी हिंदू विभूतियों का भी उल्लेख कर रही है।
इन सबके बीच बंगाल में इन दिनों हिंसा की जो घटनाएं हो रही हैं, वे एक तरह से परिवर्तनकारी हैं। ऐसे दृश्य यहां राजनीतिक परिवर्तन के दौरान दिखते हैं। माकपा शासन के दौरान भावुकता में बौद्धिकता की मिलावट की गई और इसे मार्क्सवादी चिंतन का स्वरूप दिया गया, जो धीरे-धीरे घेराव तथा हिंसा के रूप में सशक्त होता गया। अभी जो हिंसक घटनाएं घट रही हैं, उन्हें सामाजिक आर्थिक संकट के रूप में देखा जाना चाहिए। बंगाल में जब-जब राजनीतिक विरोध की व्यापकता बढ़ी है, सत्ता में परिवर्तन हुआ है। अभी जो हिंसक घटनाएं हो रही हैं, वह आने वाले चुनाव की ओर संकेत कर रही हैं। शैव-शाक्त परंपरावाले राज्य में ' जय श्री राम ' का प्रवेश एक तरह से विचारों के परिवर्तन के प्रयास का पहला कदम है। इसमें कोई शक नहीं आने वाले दिनों में हिंसा की घटनाएं और बढ़ेंगी।