श्वनाकी शे दिवसे पर्यतसिट
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हास्य व्यंग्य का मूल स्रोत हमारी हजारों बरस पुरानी संस्कृति, सभ्यता और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में मृत्यु, भय और दु:ख का कोई खास वजूद नहीं है। हमारे दार्शनिकों ने जिस ब्रह्म की अवधारणा को समाज के सामने रखा वह सत् चित् के साथ ही आनंद का स्वरूप है। ब्रह्म आनंद के रूप में सभी प्राणियों में निवास करता है। उस आनंद की अनुभूति जीवन का परम लक्ष्य माना जाता है। इसी से ब्रह्मानंद शब्द की रचना हुयी है। वह रस, माधुर्य, लास्य का स्वरूप है। इसीलिये ब्रह्म जब माया के संपर्क से मूर्तरूप लेता है तो उसकी लीलाओं में आनंद को ही प्रमुखता दी गयी है। हमारे कृष्ण रास रचाते हैं, छल करते हैं, लीलायें दीखाते हैं। वे वृंदावन की कुंज गलियों में आनंद की रसधार बहा देते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम भी होली में रंग, गुलाल उड़ाते हैं और सावन में झूला झूलते हैं। उनकी मर्यादा मे भी भक्त आनंद का अनुभव करते हैं।
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अर्जुन बोला -- यह उचित ही है। वह क्या कि हे हृषीकेश आपकी कीर्तिसे अर्थात् आपकी महिमाका कीर्तन और श्रवण करनेसे जो जगत् हर्षित हो रहा है सो उचित ही है। अथवा स्थाने यह शब्द विषयका विशेषण भी समझा जा सकता है। भगवान् हर्ष आदिके विषय हैं? यह मानना भी ठीक ही है? क्योंकि ईश्वर सबका आत्मा और सब भूतोंका सुहृद् है। यहाँ ऐसी व्याख्या करनी चाहिये कि जगत् जो भगवान्में अनुराग -- प्रेम करता है? यह उसका अनुराग करना उचित विषयमें ही है तथा राक्षसगण भयसे युक्त हुए सब दिशाओंमें भाग रहे हैं? यह भी ठीकठिकानेकी ही बात है। एवं समस्त कपिलादि सिद्धोंके समुदाय जो नमस्कार कर रहे हैं? यह भी उचित विषयमें ही है।