शिवपूजन सहाय ke bare me 200 sabdh ka nibhand
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शिवपूजन सहाय के लेखन की शुरूआत गुलाम भारत में होती है। भारत उस समय बाह्य और भीतरी गुलामी से घिरा था। बाह्य गुलामी थी औपनिवेशिक शासन यानी अंग्रेज़ों की, और भीतरी थी परम्परा, जातीयता और वर्गभेद की। भारतीय नवजागरण में गुलामी की इसी मानसिकता से बाहर लाने का काम अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नए शिक्षित मध्य वर्ग द्वारा किया गया। इस वर्ग भारत की गुलामी के सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों को पहचानकर सुधार की प्रक्रिया को अपनाया। राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद सेन से लेकर ऐनी बेसेंट, पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले, रमाबाई रानाडे, आनंदीबाई जोशी, एनी जगंन्नाथन और रूक्माबाई आदि जिनमें प्रमुख स्त्री सुधारक मौजूद रहे। भारत में नवजागरण कालीन चेतना की यह लहर केवल सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक स्तर पर ही नहीं थी बल्कि साहित्य में भी इसकी गूंज सुनाई देती है। शिवपूजन सहाय का निबंध साहित्य इसी चेतना का संवाहक था। इनके निबंधों में ‘स्त्री शिक्षा एवं स्वास्थ्य’, ‘हिंदी भाषा’ और ‘ग्राम्य जीवन में सुधार’ ये तीन हिंदी नवजागरणकालीन मुद्दे मुख्य रूप से उभरते हैं।
हिंदी नवजागरण में स्त्री सुधार एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरता है। स्त्री सुधार का यह संदर्भ महिलाओं को पश्चिमी सभ्यता से दूर रखना और उन्हें भारतीय परम्परावादी स्त्री के मूल्यों से गढ़ना रहा। शिवपूजन सहाय हिंदू स्त्री के आदर्श रूप की स्थापना करते हैं। यह उनका स्त्री के प्रति वैचारिक आग्रह था। क्योंकि नवजागरण कालीन अधिकांश लेखकों ने स्त्री की आदर्श छवि को ही अपने लेखन में गढ़ा। इसका एक कारण भारतीय परिवार व्यवस्था को बचाए रखना था। आधुनिकता के आगमन के साथ ही पश्चिम का प्रभाव महिलाओं पर होने से परिवार संस्था के टूटने का डर था। पश्चिम में उस समय तक उदार नारीवादी विचारधारा आ चुकी थी और महिलाएँ शिक्षित होकर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रही थी। इसी कारण वह अपने साहित्यिक लेखन के माध्यम से पुरातन मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास करते देखे जाते हैं ‘हिन्दू परिवार की महिला’ शीर्षक निबंध में शिवपूजन सहाय लिखते हैं “हिन्दू परिवार की महिला कहते हो आँखों में एक लज्जावती, प्रसन्न-वदना, वात्सल्य-परायणा, पति प्राण, करूणामयी, मधुरभाषिणी, कोमल हृदया, प्रेम प्रवीणा, कुलीना नारी के दिव्य रूप की ज्योति झलक उठती है”[i]। आदर्श स्त्री की झलक उनके लेखन में मिलती है। यह दौर भले ही नवजागरण का था परंतु इसके लेखक परम्परावादी ही थे।