शहर में बिताया हुआ एक घंटा हिंदी निबंध
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शनिचर की शाम थी वह ! मैं घूमने निकल पड़ा था। चलते-चलते बस-स्थानक पर जा पहुँचा । दूर से ही खड़े हुए लोगों की लंबी-लंबी कतार दिखाई पड़ रही थी। हर उम्र के और हर तरह के लोग उस कतार में खड़े थे। उसमें सूट-बूट पहने लोग थे, कुर्ता-टोपी पहने व्यापारी थे और मैले-कुचैले कपड़ोंवाले मजदूर भी थे। गंभीर गृहिणियाँ और शर्मीली युवतियाँ भी उसमें थीं। कुछ स्त्रियों के हाथों में छोटे बच्चे थे। कोई समाचारपत्र या कहानी की पुस्तिका पढ़ रहा था। कुछ वृद्ध चर्चा में डूबे हुए थे। ‘क्यू’ में कुछ बच्चे शरारत कर रहे थे। सचमुच, लोगों का यह जमघट बड़ा ही दर्शनीय था।
अन्य लोगों की भीड़
बस-स्थानक पर कुछ भिखमँगे भी घूम रहे थे। वे बार-बार सलाम करके पैसे माँग रहे थे। अखबारवाला ‘आज की ताजा खबर ‘ का नारा लगा रहा था। खिलौनेवाला और चनेवाला तो यहाँ से हटने का नाम ही न लेता था। सचमुच, बस-स्थानक की चहल-पहल देखते ही बनती थी।
बस का आना और चले जाना
करीब आधे घंटे के बाद ५ नंबर की बस आ पहुँची। यात्री बस में घुसने लगे। एक, दो, तीन, चार और पाँच । ‘रुक जाना’, ‘पीछे दूसरी गाड़ी आती है’ यह कहते हुए बस-कंडक्टर ने घंटी बजा दी और बस चल पड़ी। एक यात्री ने दौड़कर बस पकड़नी चाही, पर बेचारा फिसल पड़ा। पंद्रह मिनट और बीते, पर दूसरी गाड़ी नहीं आई। कुछ देर बाद दो बसें एकसाथ आई, पर बिना रुके ही घंटी की आवाज के साथ चल दी। लोग बैचैन हो उठे। कुछ इक्के, रिक्शा या टैक्सी में बैठकर चल दिए। लोगों की कतार तो कुछ कम हुई, पर उनकी बेचैनी और परेशानी बहुत बढ़ गई थी।