Shiksha essay in Hindi
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Explanation:
भारतीय संस्कृति में वैदिक काल को ज्ञान व विद्धता की दृष्टि से श्रेष्ट काल माना जाता है उस समय भारतवर्ष में कालिज, विश्वविद्यालय नहीं थे मारटर व प्रोफेसर भी नहीं थे बल्कि कालिज व विश्वविद्यालय के स्थान पर तो गुरूकुल व आश्रम हुआ करते थे मास्टर व प्रोफेसर के स्थान पर ऋषि, राजऋषि व महर्षि हुआ करते थे ।
छात्रावास भी नहीं थे छात्र गृह त्याग करके गुरू के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाया करते थे । छात्र गुरू की शरण में रहकर आश्रम का जीवन व्यतीत किया करते थे । गुरू की आज्ञा ही सर्वोपरि परमादेश हुआ करता था गुरू की आज्ञा से सभी छात्र भिक्षा मांगकर आश्रम में लाते थे उसके बाद गुरू माता छात्रों के लिए भोजन आदि का प्रबन्ध किया करती थी ।
भिक्षा मांगने के पीछे गुरू का तर्क था कि वे अपने छात्रों से भिक्षा मंगवाकर उनको अहंकार शून्य करते थे कोई छात्र राजकुमार हो या कोई गरीब सभी के लिए समान शिक्षा व्यवस्था थी तभी तो कृष्ण और गरीब सुदामा का दृष्टान्त इतिहास में मिलता है जिससे अमीरी-गरीबी के भेद को समाप्त किया जाता था एकलव्य की गुरु भक्ति का उदाहरण भी इतिहास में मिलता है भारतीय संस्कृति में गुरू को भगवान से भी ऊंचा दर्जा प्राप्त था तभी तो कबीर दास जी ने कहा था –
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय ।
बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दिये बताय । ।
इसी प्रकार गुरू को भगवान से भी श्रेष्ट माना जाता था । गुरू को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के बराबर का दर्जा भारतीय संस्कृति में था जिसको-
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवों महेश्वर:|
गुरू साक्षात् परमब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवै नम: ।।
अर्थात ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों देव गुरू की श्रद्धा में समाहित हैं यानि तीनों ही देवता गुरू के तुल्य हैं । गुरू सर्वोपरि है, परमरूप है ऐसा भारतीय संस्कृति में माना जाता था ।
कबीरदास जी ने गुरू की महिमा का वर्णन करते हुए कहा था कि गुरू ही तो होता है जो शिष्य को रास्ता दिखाता है उसे अज्ञान रूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाता है ।
ऐसा कबीरदास जी ने कहा था:
कबिरा हरि के रूठते गुरू के शरने जाय ।
कह कबिरा गुरू रूठते हरि नहीं होत सहाय ।।
उस समय की शिक्षा का उद्देश्य मात्र ज्ञान प्राप्त करना था जो ऋषि, महर्षि अपने शिष्यों को ज्ञान देकर समाजहित व राष्ट्रहित का कार्य करते थे । शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं था शिक्षकों का उद्देश्य धन कमाना नहीं था शिक्षकों का उद्देश्य अपने शिष्यों को ज्ञान देकर विद्वान बनाना मात्र था जिस कारण दूसरे देशों से छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारतवर्ष में आते थे । भारतवर्ष के ज्ञान की महत्ता विश्व में चारों ओर थी । तक्षशिला विश्वविद्यालय हो या नालंदा विश्वविद्यालय विश्व में अपनी उच्च गुणवत्तापरक शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध थे ।
परन्तु वक्त बीतने के साथ ही विश्व स्तर पर भारतीय शिक्षा ने अपनी पहचान को मिटा दिया जिसका अत्यधिक नुकसान भारतीय पीढी को उठाना पड़ रहा है जो वर्तमान समय में शिक्षा के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, रूस, कनाड़ा आदि देशों की ओर जाने को मजबूर हैं ।
भारत जो किसी समय विश्व गुरू था वर्तमान समय में अपनी शिक्षा गुणवत्ता के लिए तरस रहा है । भारत में आज शिक्षा का निजीकरण हो चुका है लेकिन शिक्षा के निजीकरण के साथ ही जो दूसरा कटु अनुभव देश के छात्रो को प्रत्येक स्तर की शिक्षा में मिल रहा है उसको भी नकारा जाना मुश्किल ही नहीं नामुंकिन सा प्रतीत होता है ।