Political Science, asked by mohammadrahisqureshi, 8 months ago

Shiksha pr Rajneeti krna kitna uchit hai aur kitna anuchit.

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Answered by rahibakhan
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शिक्षा सीधे तौर पर समाज से जुड़ी होनी चाहिए। परंतु हमारी शिक्षा में समाज के आवश्यक और वैकल्पिक प्रश्नों के लिए कोई पाठ्यक्रम नहीं है। ऐसे पाठ्यक्रम जो समाज के लिए पोषक हों, यहां पाठ्यक्रम में सोती सुन्दरी है। उसके सोने के बाल, एक राजकुमार है, जो सोती सुन्दरी को छूता है। पा लेता है। एक ओर ज से जहाज है, दूसरी ओर ज से जमाखोर। विसंगति यह है कि जमाखोर की जरूरत वाले विद्यार्थी को जहाज और जहाज की जरूरत वाले विद्यार्थी को जमाखोर पढ़ाया जाता है। शिक्षा आर्थिक युग का पूरा-पूरा लाभ उठा रही है। वह भी बंट गयी है कई स्तरों पर। म्युनिसिपल स्तर पर। कान्वेंट स्तर पर। सिटी मांटेसरी स्तर पर। क्रैश स्तर पर और सेन्ट्रल बोर्ड स्तर पर।

  1. हमारी शिक्षा में सीखना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है परीक्षा में उत्तीर्ण होना। दो वर्ष के सीखे को पढ़े को मात्र पैंतीस मिनट में लिखना। पैंतीस मिनट के लिखे को पांच मिनट में जांचना। फिर जांचते समय कार्य करते हैं और भी कई प्रभाव परीक्षक का मूड। परीक्षक का बौद्धिक वर्गवाद। यदि परीक्षक की उस विषय पर पुस्तक है तो छात्र ने उसे पढ़ा, लिखा है या नहीं। हमारी शिक्षा भविष्य की बेदी पर कभी वर्तमान की बलि चढ़ाती है तो कभी वर्तमान की बेदी पर भविष्य की। यानी हमारी शिक्षा में उत्सर्ग जरूरी है। पाया-खोया का सिद्धांत आवश्यक है।
  2. यह पाया-खोया का भाव श्रेणियों का क्रम बीमारी पैदा करता है। श्रेष्ठता व निकृष्टता का भाव बढ़ता है आदमी में। कितना हास्यास्पद है कि वर्ष भर छात्र जो करता है, वह निर्णायक नहीं होता। निर्णायक होता है तीन घंटे पांच सवाल। फिर छात्र सोचता है वर्ष भर मेहनत करता क्यों है। धीरे-धीरे मेहनत से कटने लगता है। वह तलाशने लगता है पांच सवाल। उसके लिए अपनी ऊर्जा का प्रयोग अध्यापक के इर्द-गिर्द मंडराने में करने लगता है। अध्यापक भी इसका लाभ उठाते हैं। पांच प्रश्नों में अमोध अस्त्र को परीक्षा तक संभाले रहते हैं। कुछ अध्यापक तो इस संभालने रखने के अपने हुनर का अतिरिक्त लाभ भी चाहते हैं और उन्हें मिलता भी है।
  3. शिक्षक ने तीस साल पहले शिक्षा पाई थी। वह तीस सालों से वही दुहराता आ रहा है जबकि परिस्थितियां लगातार बदल रही हैं। ज्ञान राशि नित्य बढ़ रही है। ज्ञान का विस्फोट निरंतर जारी है।
  4. हर क्षण हमारे प्रति संवेदन पुराने पड़ते जा रहे हैं। स्थिति यह है किसी भी विषय पर अब किताब नहीं लिखी जा सकती। क्योंकि जितने दिनों में किताब पूरी होगी। तब तक ज्ञान के अर्हनिश विस्फोट से वह ज्ञान अधूरा हो चुका होगा। नए आविष्कार, नए तथ्य पुस्तक को असंगत कर देते हैं। इसलिए पत्रिकाओं पर निर्भरता बढ़ती है। फिर भी शिक्षक का तीस साल पुराना तुर्रा और इस तुर्रे पर उसकी विशेष सम्मान पाने की लालसा।
  5. हम अपनी शिक्षा में इतिहास के सम्बन्ध में कोई मूलभूत दृष्टिकोण नहीं बना पाए हैं। तभी तो चंगेज खां, नादिर शाह, हिटलर, तैमूर लंग आदि को इतिहास मान बैठे हैं। जबकि ये हमारे इतिहास नहीं हैं। ये दुःस्वप्न ही है। अगर इन्हें इतिहास माना जाता रहा तो वह दिन दूर नहीं जबकि तवारीख में भी यह पथ जाना जाने लगेगा और उस पथ से कोई पथिक भी चल पड़ेंगे।
  6. इतिहास उनसे भरा हुआ होना चाहिए, जिनसे हमारा सौंदर्य बढ़े। जिन्होंने हमारा सौंदर्य बढ़ाने में योगदान दिया। गौतम बुद्ध, महावीर, सुकरात, लाओत्से, रूमी, जे.कृष्णामूर्ति, विवेकानंद, वाल्ट व्हिट मैन, उमर खैय्याम, टाॅल्सटाय, मैक्सिम गोर्की, प्रेमचंद्र, दोस्तोयस्की, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि।
  7. इतिहास में विभेद न कर पाने की दृष्टि का ही परिणाम है कि चंद्रशेखर और लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री मानने की विवशता तो है ही पर दोनों इतिहास पुरूष हैं। सुभाष चन्द्र बोस और राजीव गांधी दोनों ही भारत रत्न हैं। हमारे देश का राजनीतिज्ञ भी नहीं चाहता कि शिक्षा एक समान हो। एक तरह की हो। क्योंकि शिक्षा यदि एक तरह की होगी, तो वह एक समान मस्तिष्क पैदा करेगी। एक समान मस्तिष्क बनेंगे तो राजनीति के विघटन का कुचक्र कैसे चलेगा? कैसे बांटो राज करो फलेगा-फूलेगा? स्वतंत्रता के साथ जिस तरह मैकाले की शिक्षा पद्धति को स्वीकार किया गया, वह हमारे राजनीतिक पुरोधाओं के समाजबोधी दायित्व को जताने के लिए पर्याप्त है। भारत पहला देश रहा है और है, जिसमें आजादी के बाद शिक्षा के स्तर पर कोई व्यापक फेरबदल नहीं हुआ, जो कुछ हुआ, वह शिक्षा के खाते में आए धन को व्यय करने के लिए कागजी औपचारिकता निभाने में। उदाहरण के रूप में हम देख सकते हैं कि पिछले एक दशक में शहरों में म्युनिसिपल स्कूल नहीं के बराबर खुले। कारण साफ है जो कान्वेंट स्कूल खुल रहे हैं, उनमें प्रबंधन के तौर पर भागीदारी किसी न किसी राजनीतिज्ञ की है और शिक्षा एक उद्योग बन गयी है।

शिक्षा में राजनीति वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने राजनीति की शिक्षा नहीं पायी। राजनीति करने के लिए किसी किस्म की शिक्षा की जरूरत नहीं हैं। यह तो हितार्थ दृष्टिकोण है। विदेश मंत्री निरक्षर। प्रधानमंत्री साक्षर। फिर भी देश का बौद्धिक स्तर? यह देश का कितना दुर्भाग्य है कि राजनीति के लिए शिक्षा का कोई निर्धारित मापदण्ड नहीं है। जब राजनीति के लिए शिक्षा नहीं तो फिर राजनीति की शिक्षा का सवाल ही कहां उठता। अगर गैर शिक्षित राजनीतिज्ञ शिक्षा से खिलवाड़ कर रहे हैं तो निराश या हताश होने की बात नहीं। क्योंकि ‘अंधा सुखी जब सबका फूटे’ वह सबकी आंखें फोड़ने का उपक्रम करेगा। उसे सुख चाहिए। अपने तरह का सुख। यही खेल जारी है। तब तक जारी रहेगा, जब तक शिक्षा में राजनीति, राजनीति में अशिक्षा, शिक्षा का व्यवसाय, समाज विहीन शिक्षा जारी रहेगी।

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