shirshak ki sarthakata of mahayagya ka puraskar
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यशपाल जी के कहानी "महायज्ञ का पुरस्कार" में उजागर किया गया है कि निस्वार्थ भाव से किया गया कर्म महायज्ञ होता है | इस कहानी के मुख्य पात्र सेठ एवं सेठानी अपनी गरीबी को दूर करने के लिए तत्कालीन प्रथा के अनुसार यज्ञ का फल बेचने के लिए विवश हो जाते हैं । जब वे दोनों मिलकर कुंदनपुर जाते रहते हैं तो रास्ते में उन्हें एक भूखा और कमजोर कुत्ता मिलता है।
वस्तुत: सेठ- सेठानी का स्वभाव दान देने का होने के कारण वे स्वयं भूखे रहकर उस कुत्ते को अपनी सभी रोटियां खिला देते हैं । इस तरह अनजाने ही वे एक महायज्ञ संपन्न कर लेते हैं । गूढार्थ में देखे तो श्रीमद्भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है "अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: ।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४ ॥" अर्थात
(सब प्राणीयों के देह में वैश्वानर अग्नि होकर, प्राण और अपान के साथ मिलकर चार प्रकार के अन्न (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) मैं ही पचाता हूँ ।) और यज्ञ में भी अग्नि में आहुतियाँ ही प्रदान की जाती है | जब हम भोजन करते है तो निस्संदेह ये एक यज्ञ (वैश्वानर अग्नि से युक्त) ही है किन्तु किसी भी अन्य जीव को निस्वार्थ भोजन प्रदान करते है तब ये महायज्ञ है | उसी के पुरस्कार स्वरूप उन्हें तहखाने में धन का अम्बार प्राप्त होता है | अत: कहानी का शीर्षक "महायज्ञ का पुरस्कार " सर्वथा उचित और सार्थक है |