short essay on पर्यावरण प्रदूषण निवारण in hindi
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पर्यावरण को प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप से प्रदूषित करने वाला प्रक्रम (process) जिसके द्वारा पर्यावरण (स्थल, जल अथवा वायुमंडल) का कोई भाग इतना अधिक प्रभावित होता है कि वह उसमें रहने वाले जीवों (या पादपों) के लिए अस्वास्थ्यकर, अशुद्ध, असुरक्षित तथा संकटपूर्ण हो जाता है अथवा होने की संभावना होती है। पर्यावरण प्रदूषण सामान्यतः मनुष्य के इच्छित अथवा अनिच्छित कार्यों द्वारा पारिस्थितिक तंत्र में अवांक्षित एवं प्रतिकूल परिवर्तनों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है जिससे पर्यावरण की गुणवत्ता में ह्रास होता है और वह मनुष्यों, जीवों तथा पादपों के लिए अवांक्षित तथा अहितकर हो जाता है। पर्यावरण प्रदूषण को दो प्रधान वर्गों में रखा जा सकता हैः- 1. भौतिक प्रदूषण जैसे स्थल प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि, और 2. मानवीय प्रदूषण जैसे सामाजिक प्रदूषण, राजनीतिक प्रदूषण, जातीय प्रदूषण, धार्मिक प्रदूषण, आर्थिक प्रदूषण आदि। सामान्य अर्थों में पर्यावरण प्रदूषण का प्रयोग भौतिक प्रदूषण के संदर्भ में किया जाता है।
आधुनिक परमाणु, औद्योगिक, श्वेत एवं हरित-क्रान्ति के युग की अनेक उपलब्धियों के साथ-साथ आज के मानव को प्रदूषण जैसी विकराल समस्या का सामना करना पड़ रहा है। वायु जिसमें हम साँस लेते हैं, जल, जो जीवन का भौतिक आधार है एवं भोजन जो ऊर्जा का स्रोत है- ये सभी प्रदूषित हो गए हैं। प्रसिद्ध पर्यावरण वैज्ञानिक इ.पी. ओडम (E.P. Odum) ने प्रदूषण (pollution) को निम्न शब्दों में परिभाषित किया हैं-
“Pollution is an undesirable change in the physical, chemical or biological characteristics of air, water and land (i.e., environment) that will be, or may be, harmful to human & other life, industrial processes, living condition and cultural assets.”
अर्थात- “प्रदूषण का तात्पर्य वायु, जल या भूमि (अर्थात पर्यावरण) की भौतिक, रसायन या जैविक गुणों में होने वाले ऐसे अनचाहे परिवर्तन हैं जो मनुष्य एवं अन्य जीवधारियों, उनकी जीवन परिस्थितियों, औद्योगिक प्रक्रियाओं एवं सांस्कृतिक धरोहरों के लिये हानिकारक हों।”
Pollution शब्द के ग्रीक मूल का शाब्दिक अर्थ है defilement अर्थात दूषित करना, भ्रष्ट करना। प्रदूषणकारी वस्तु या तत्व को प्रदूषक (pollutant) कहते हैं। कोई भी उपयोगी तत्व गलत मात्रा में गलत स्थान पर होने से वह प्रदूषक हो सकता है। उदाहरणार्थ, जीवधारियों के लिये नाइट्रोजन एवं फास्फोरस आवश्यक तत्व है। इनके उर्वरक के रूप में उपयोग से फसल-उत्पादन तो बढ़ता है किन्तु जब ये अधिक मात्रा में किसी-न-किसी तरह से नदी या झील के जल में पहुँच जाते हैं तो अत्यधिक काई पैदा होने लगती है। आवश्यकता से अधिक शैवालों के पूरे जलाशय में एवं जल-सतह पर जमा होने से जल-प्रदूषण होने की स्थिति बन जाती है। प्रदूषक सदैव व्यर्थ पदार्थ के रूप में ही नहीं होते। कभी-कभी एक स्थिति को सुधारने वाले तत्व का उपयोग दूसरी स्थिति के लिये प्रदूषणकारी हो सकता है। प्रदूषक पदार्थ प्राकृतिक इकोतंत्र से तथा मनुष्य द्वारा की जाने वाली कृषि एवं औद्योगिक गतिविधियों के कारण उत्पन्न होते हैं। प्रकृति-प्रदत्त प्रदूषक पदार्थों का प्राकृतिक तरीकों से ही उपचार हो जाता है, जैसा कि पदार्थों के चक्रों में आप पढ़ चुके हैं। किन्तु मनुष्य की कृषि या औद्योगिक गतिविधियों से उत्पन्न प्रदूषक पदार्थों के लिये न तो प्रकृति में कोई व्यवस्था है एवं न ही मनुष्य उसके उपचार हेतु पर्याप्त प्रयत्न कर पा रहा है। फलस्वरूप, बीसवीं सदी के इन अन्तिम वर्षों में मनुष्य को एक प्रदूषण युक्त वातावरण में रहना पड़ रहा है। यद्यपि हम वातावरण को शत-प्रतिशत प्रदूषणमुक्त तो नहीं कर सकते, किन्तु ऐसे प्रयास तो कर ही सकते हैं कि वे कम-से-कम हानिकारक हों। ऐसा करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को पर्यावरण-संरक्षण को उतनी ही प्राथमिकता देनी होगी जितनी कि अन्य भौतिक आवश्यकताओं को वह देता है।
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पर्यावरण दो शब्दों के मेल से बनता है। परि + आवरण, यानी वह आवरण जो हमें चारों तरफ से घेरे हुए है। नदी, पहाड़, वायु, आकाश, धरती आदि पदार्थ जो हमारे चारों ओर उपस्थित हैं, उसी का नाम पर्यावरण है। ‘प्रदूषण’ शब्द का अर्थ है-हमारे आसपास का वातावरण गंदा होना। आज प्रदूषण की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। प्रदूषण चार प्रकार के होते हैं-ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और भूमि प्रदूषण।।
भूमि पर जनसंख्या के बढ़ते दबाव तथा उद्योग धंधों के लिए भूमि की कमी को पूरा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है। इसी प्रकार कल-कारखानों की चिमनियों से निकलते धुएँ ने वायु को प्रदूषित कर दिया है। औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला अवशिष्ट पदार्थ जब नदी आदि के पानी में बहा दिया जाता है, तो इस कारण से नदी का पानी प्रदूषित होता है और नगरों में मशीनों, वाहनों आदि के शोर से ध्वनि प्रदूषण होता है।
प्रदूषण के कारण अनेक प्रकार के रोगों का जन्म होता है। वायु प्रदूषण के कारण साँस और आँखों के रोग, खाँसी, दमा आदि होते हैं। प्रदूषित जल के सेवन करने से पेट के रोग हो सकते हैं। ध्वनि प्रदूषण से मानसिक तनाव बढ़ता है। यही नहीं प्रदूषण से उच्च रक्त चाप, हृदय रोग, एलर्जी, चर्म रोग भी हो जाते हैं।
प्रदूषण की रोकथाम के लिए यह आवश्यक है कि वनों की कटाई बंद हो, कारखाने शहरों से दूर स्थापित किए जाएँ। ज़्यादा से ज़्यादा पेड़ लगाने होंगे तथा अपने आसपास साफ़-सफ़ाई का ध्यान रखना होगा।