Hindi, asked by kumarpappu3273, 1 year ago

Short summary of malgudi in hindi

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Answered by palak522
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अपने उपन्यास ‘गाइड’ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित तथा पद्मविभूषण द्वारा अलंकृत उपन्यासकार आर.के.नारायण विश्वस्तरीय रचनाकार गिने जाते हैं। उनके उपन्यास ‘गाइड’ पर बनी फिल्म में उन्हें लोकप्रियता का एक और आयाम दिया, जिसे आज भी याद किया जाता है।

‘मालगुडी की कहानियां’ आर.के. नारायण की अद्भुत रोचक कहानियां समेटे हुए पुस्तक है। अपने दक्षिण भारत के प्रिय क्षेत्र मैसूर और चेन्नई में उन्होंने आधुनिकता और पारंपरिकता के बीच यहां-वहां ठहरते साधारण चरित्रों को देखा और उन्हें अपने असाधारण कथा-शिल्प के जरिये, अपने चरित्र बना लिये। ‘मालगुडी के दिन’ पर दूरदर्शन ने धारावाहिक बनाया जो दर्शक आज तक नहीं भूले हैं। 
दशकों बाद भी ‘मालगुडी के दिन’ कहानियां उतनी ही जीवंत और लोकप्रिय हैं, जितनी पहले कभी नहीं थीं। यही उनकी खूबी है।

 


कहानियाँ लिखना लेखक के लिए आसान होता है क्योंकि इसमें ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। उपन्यास अच्छा हो या बुरा, छापने लायक हो या न हो, इसमें बहुत काम करना पड़ता है। बहुत ज्यादा शब्द लिखने पड़ते हैं, साठ हज़ार से एक लाख तक जो पहली नज़र में बहुत मुश्किल काम लगता है, क्योंकि इतने शब्द लिखने में बहुत लम्बे समय तक इन पर ध्यान जमाये रखना पड़ता है, आजकल के हिसाब से मैं छोटे उपन्यास ही लिखता हूँ, फिर भी एक ही विषय पर महीनों तक काम करते रहना मुझे परेशान करने लगता है। इन दिनों रात-दिन दिमाग में शब्द और वाक्य घूमते रहते हैं, अंतिम जो शब्द लिखे थे, वे और इसके बाद क्या शब्द लिखे जायेंगे, वे सब कानों में लगातार गूँजते रहते हैं, इनके अलावा दूसरी सब आवाजें और खुशबुएँ-बदबुएँ दिमाग़ में घुस ही नहीं पातीं, बाहर से ही वापस चली जाती हैं। जब उपन्यास का पहला खाक़ा बनाना पड़ेगा, शायद तीसरा और चौथा भी बनाना पड़े, जब तक इसमें पूर्णता प्राप्त न की जा सके- असंभव-सा काम है। फिर कहीं वह दिन आता है जब पांडुलिपि का पैकेट बनाकर उसे प्रकाशक या लिटरेरी एजेंट को रवाना किया जा सकता है। 

हर उपन्यास पूरा करने के बाद मैं निश्चय करता हूँ कि इसके बाद दूसरा नहीं लिखूँगा- तब मैं एक या दो कहानियाँ लिख डालता हूँ। यही काम मुझे अच्छा लगता है। उपन्यास लिखने में जहाँ बहुत से चरित्रों और घटनाओं की काफी विस्तार से सोच-विचार कर लिखना पड़ता है, वहाँ कहानी लिखने के लिए एक ही चरित्र या घटना काफी होती है, एक मुख्य विचार या क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने से ही अच्छी कहानी बन जाती है।

भारत में कहानी-लेखक के लिए विषयों की कमी नहीं होती। हमारी संस्कृति इतनी विस्तृत है कि उसमें विषयों की भरमार है : हर आदमी दूसरे आदमी से न सिर्फ आर्थिक स्थिति में, बल्कि दृष्टिकोण, आदतों और यहाँ तक कि रोजमर्रा के जीवन-दर्शन में भी एक-दूसरे से अलग है। ऐसे समाज में जीना और रहना, जो मशीन की तरह एक जैसी जिन्दगी नहीं जीता, जिसमें एक रसता नहीं है, बहुत मनोरंजक और उत्तेजक होता है। ऐसी स्थिति में कहानी लेखक के खिड़की से बाहर गर्दन निकालकर झाँकते ही उसे ऐसा कोई चरित्र मिल जायेगा जिस पर वह अच्छी कहानी लिख डालेगा।
कहानी छोटी ही होनी चाहिए, इस पर दुनिया में सभी एकमत हैं, लेकिन उसकी परिभाषा अलग-अलग ढंगों से की जाती है- अखबार के रिपोर्टर की तरह सामान्य विवरण से लेकर साहित्यिक लेखक के गंभीर चित्रण-विश्लेषण तक, जिसमें घटना, चरित्र भाषा, अभिव्यक्ति, लेखक की अपनी विशेष शैली इत्यादि अनेक बातों पर पूरा ध्यान दिया जाता है। अपनी बात करूँ तो मुझे व्यक्ति की परिस्थितियों पर उसके अपने ही चरित्र संकट में कहानी का सामग्री प्राप्त हो जाती है। इस संकलन में दी गई लगभग तीस कहानियों में ज्यादातर व्यक्ति के ऐसे किसी संकट को लिया गया है जिसे या तो वह जीत लेता है या उसी के साथ रहने को मजबूर होता है। कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें व्यक्ति के जीवन या उसकी परिस्थितियों में कोई ऐसा विशेष क्षण दिखाई देता है जिसको पकड़ने से ही कहानी बन जाती है।

मैंने इस संकलन का नाम मालगुड़ी कस्बे पर दिया है, क्योंकि इससे इसे एक भौगोलिक व्यक्तित्व मिल जाता है। लोग अक्सर पूछते हैं :‘लेकिन यह मालगुडी है कहाँ ?’ जवाब में मैं यही कहता हूँ कि यह काल्पनिक नाम है और दुनिया के किसी भी नक्शे में इसे ढूंढा नहीं जा सकता (यद्यपि शिकागो विश्विद्यालय ने एक साहित्यिक एटलस प्रकाशित किया है जिसमें भारत का नक्शा बनाकर उसमें मालगुडी को भी दिखा दिया गया है)। अगर मैं कहूँ कि मालगुडी दक्षिण भारत में एक कस्बा है तो यह भी अधूरी सच्चाई होगी, क्योंकि मालगुडी के लक्षण दुनिया में हर जगह मिल जायेंगे।

मैं न्यूयार्क में भी मालगुडी के लक्षण ढूंढ लेता हूँ : नगर के पश्चिमी भाग में तेईसवीं सड़क जहाँ 1959 के बाद मैं अक्सर कई-कई महीनों तक रहा, जहाँ बस्ती के निशान और लोगों की ज़िन्दगी में कभी कोई फेरबदल नहीं हुआ- सिनेगॉग की सीढ़ियों पर लुढ़कते शराबी, वह दुकान जिस पर हमेशा बड़े-बड़े शब्दों में लिखा रहता है : यहां की हर चीज़ हफ्ते भर में बिक जाती है- हमेशा के लिए पचास फीसदी सेल; यहाँ की नाई की दुकान, डेन्टिस्ट, वकील, मछली पकड़ने वाले हुकों वगैरह का विशेष स्टोर और स्वादिष्ट खाने-पीने के रहने के रेस्तराँ (जहाँ मैं पहली बार गया तो मालिक ने स्वागत करते हुए कहा ‘आप बहुत दिन बाद आये। आजकल आप दूध, चावल वगैरह कहाँ खरीदते हैं ?’ उसने यह भी नहीं सोचा कि मैं न तेईसवीं सड़क का बाशिन्दा हूँ, न अमेरिका का निवासी हूँ।)- यह सब कुछ हमेशा की तरह वैसा नहीं रहता है, इसके स्थायित्व और आपसी मेलभाव में कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। और वो चेलसी होटल जहाँ जब मैं कई साल बाद पहुँचा तो मैनेजर ने लपककर मेरा स्वागत किया और ख़ुशी से भरकर गले से ही नहीं लगा लिया, अपने समूचे स्टाफ को बुलाकर (तब तक तो ज़िन्दा रह गये थे) मुझसे मिलवाया, इनमें पहियेवाली कुर्सी पर चलने-फिरने वाला वह पुराना निवासी भी था जिसकी उम्र अब लगभग 116 साल थी, और जब मैं पिछली दफा इस होटल में रहा, तब यह 90 से कुछ ज्यादा ही रहा होगा।
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