Hindi, asked by Sonalisingh14, 1 year ago

sikudhte van par nibandh


sam460: plz do mark it brainlist

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Answered by pihuuuu
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प्रकृति ने जल और जंगल के रूप में मनुष्य को दो ऐसे अनुपम उपहार दिए हैं जिनके सहारे कई दुनिया में कई सभ्यताएं विकसित हुई हैं, लेकिन मनुष्य की खुदगर्जी के चलते इन दोनों ही उपहारों का तेजी से क्षय हो रहा है। 

पानी के संकट को स्पष्ट तौर पर दुनियाभर में महसूस किया जा रहा है और कई विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि अगला विश्वयुद्ध अगर हुआ तो वह पानी को लेकर ही होगा। जिस तेजी से पानी का संकट विकराल रूप लेता जा रहा है, कमोबेश उसी तेजी से जंगलों का दायरा भी सिकुड़ता जा रहा है। 

जब मनुष्य ने जंगलों को काटकर बस्तियां बसाई थीं और खेती शुरू की थी, तो वह सभ्यता के विस्तार की शुरुआत थी। लेकिन विकास के नाम पर मनुष्य की खुदगर्जी के चलते जंगलों की कटाई का सिलसिला मुसलसल जारी रहने से अब लग रहा है कि अगर जंगल नहीं बचे तो हमारी सभ्यता का वजूद ही खतरे में पड़ जाएगा। 

 

विशेषज्ञों का कहना है कि दुनियाभर में जंगल अब बहुत तेजी से खत्म हो रहे हैं। पूरी दुनिया के जंगलों का 10वां भाग तो पिछले 20 सालों में ही खत्म हो गया है। यह गिरावट लगभग 9.6 फीसदी के आसपास है। जंगलों की यह कटाई और छंटाई किसी खेती या बागवानी के लिए नहीं, बल्कि नए-नए नगर बसाने और उससे भी कहीं ज्यादा खनन के लिए हो रही है।

Answered by sam460
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बढ़ती सभ्यताः सिकुड़ते वन पर लघु निबंध

आज हमारी सभ्यता दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। सभ्यताक का प्रसार आज इतना हो रहा है कि हम आज प्रकृति देवी का अनादर करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहे हैं। यही कारण है कि आज हमारी सभ्यता के सामने प्रकृति देवी उपेक्षित हो रही है। वनों का धड़ाघड़ कटते जाना और उससे धरती का नंगापन दिखाई देना, इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि हमने सभ्यता के नाम पर सबकी बली या तिलांजली देनी स्वीकार कर ली है।बढ़ती और सभ्यता के और विस्तार के लिए वनों का सिकुड़ते जाना अथवा उन्हें साफ करके उनके स्थान पर आधुनिक सभ्यता का चिन्ह स्थापित किए जाने से सभ्यताएँ तो बढ़ती जा रही हैं और हमारे वन विनष्ट होते जा रहे हैं। हमारी प्रकृति के मुख से हरीतिमा का हट जाना हमारी उदण्डता का परिचायक है। जिस देवी के द्वारा हमारा लालन पालन हुआ, उसी को हम आज उदास या दुखी करने पर तुले हुए हैं। क्या यह हमारे लिए कोई शोभा या सम्मान का विषय हो सकता है।
अब हम यह विचार कर रहे हैं कि सभ्यता की धमा चौकड़ी के कारण किस तरह हम दुखी और विवश हो रहे हैं। वनों की कमी के कारण हमें कागजल निर्माण के लिए बाँस तथा घास सहित अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है। इससे हम कागज निर्माण के क्षेत्र में पिछड़ते जा रहे हैं और विवश हो करके हमें कागज का आयात विदेशों से करना पड़ता है। लाख चीड़ आदि उपयोगी पदार्थ भी वनों की कमी और अभाव के कारण हमें अब मुश्किल से प्राप्त हो रहे हैं। इससे हमारे खिलौने के उद्योगों पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। सिकुड़ते वनों के कारण हमें विभिन्न प्रकार की इमारती लकडि़याँ प्राप्त नहीं हो पा रही हैं। परिणामस्वरूप हम इमारती उद्योग से दूर होते जा रहे हैं। वनों में मिलने वाली विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियाँ भी अब हमें प्राप्त नहीं हो रही हैं। इससे दवाईयों की अधिक से अधिक तैयारी हम नहीं कर पा रहे हैं। वनों के अभाव के कारण हमारे यहाँ वर्षों का औसत प्रतिवर्ष कम होता जा रहा है या इसकी अधिकता अथवा कभी कम होती है। इससे कृषि, स्वास्थ्य आदि की गड़बड़ी के फलस्वरूप हमारा जीवन कष्टकर होता जा रहा है। वनों की कमी के कारण भूमि का कटाव रूक नहीं पाता है। इससे अधिक से अधिक मिट्टी कट कटकर नदी और नालों से बहती हुई जमा होती रहती है। इसलिए नदियों की पेंदी भरती जा रही है। इससे थोड़ी सी वर्षा होने पर अचानक बाढ़ का भयानक रूप दिखलाई पड़ता हुआ हमारे जीवन को अस्त व्यस्त और त्रस्त कर देता है।सिकुड़ते वनों के कारण हमें शुद्ध वायु, जल और धरातल अब मुश्किल से प्राप्त होते जा रहे हैं, जो हमारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए कष्टदायक और अवरोध मात्र बनकर सिद्ध हो चुके हैं। वनों के अभाव के कारण विभिन्न प्रकार के जंगली जीवन जन्तुओं की भारी कमी हो रही है। इससे प्रकृति का महस संतुलन बिगड़ चुका है। सिकुड़ते वनों के कारणों ही हम प्रकृति देवी के स्वच्छन्द और उन्मुक्त स्वरूप को न देख पाने के कारण कृत्रिमता के अंचल से ढकते जा रहे हैं।
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