small nibandh on bhikari samasya
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भिक मांगकर अपनी जीविका चलनेवाले भीखारी या भिखियुक कहलाते है। वह व्यक्ति जो शारीरिक या मानसिक रूप से इतना अक्षम हो कि वह स्वयं परिश्रम करके अपनी जीविका नहीं चला सकता, उसे भीख माँगकर खाने का ही सहारा रह जाता है । ऐसा व्यक्ति द्वार-द्वार जाकर भीख की झोली या कटोरा फैलाता है और जो कुछबासी-ताजा मिलता है, उसे खाकर संतुष्ट रहता है ।
भीख माँगकर गुजर-बसर करना कोई सम्मान की बात नहीं । समाज भिखारियों को ओछी निगाहों से देखता है । कोई उसे दुत्कार देता है तो कोई दयावश उसकी झोली में एक-आध सिक्का डाल देता है । शरीर से लाचार, वृद्ध एवं दीन दशा से युक्त भिखारी सचमुच दया के पात्र माने जाते हैं, परंतु उन्हें भी बार-बार गिड़गिड़ाना पड़ता है, ईश्वर का वास्ता देना पड़ता है और दुआएँ देनी पड़ती हैं । उन्हें किसी चौराहे या नुक्कड़ पर, देवस्थलों पर या किसी भीड़ – भाड़ वाली जगह पर अपना आसन जमाकर बैठना पड़ता है । मंदिरों के सामने तो भिखारियों के झुंड के झुंड रहते हैं । यहाँ दाता भी बड़ी संख्या में आते हैं । कोई देकर धर्म कमाता है, तो कोई लेकर । लेन-देन और दान-पुण्य का यह व्यवसाय सदियों पुराना है ।