Speech on परीक्षा से नहीं आंकी जा सकती क्षमता
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वर्तमान समय की सबसे बड़ी विडंबना शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञानार्जन की बजाय अंक अर्जन हो गया है। जिस विद्यार्थी ने जितने अधिक अंक परीक्षा में हासिल किए, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान और योग्य समझा जाता है। हमारी इस मनोवृत्ति से बच्चे स्वयं को कठिन परिस्थितियों में फंसा लेते हैं और अपनी समस्याओं को खुलकर बता नहीं पाते। इसके चलते धीरे-धीरे वे समाज-दुनिया से दूरी बना लेते हैं। माता-पिता, शिक्षकों की आशा के अनुरूप सिद्ध होने के लिए वे अधिक अंक हासिल करने की चूहा-दौड़ में शामिल हो जाते हैं। उनकी क्षमता हो या न हो वे अपने माता-पिता के सपने पूरा करना चाहते हैं। इसी कोशिश में उनकी मानसिक स्थिति खराब हो जाती है। दिमाग पर परीक्षा का भय सवार हो जाता है। निराशा, हताशा, तनाव और असफल होने का भय इस कदर हावी होता है कि कई बार तो मासूम बच्चे आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं।
एक सुशिक्षित नागरिक होने के नाते हमारा दायित्व है कि हम जल्दी से अपने अनुपयोगी हो चुके परंपरागत शैक्षणिक ढांचे में बदलाव लाएं। बच्चों को बिना तनाव दिए सहज, सरल व्यावहारिक रूप में ज्ञान प्रदान करें। केवल अंकों के आधार पर उनकी क्षमता और योग्यता का आकलन ना हो।
कोई पढ़ाई में अच्छा है तो कोई खेल में। कोई विलक्षण संगीतकार है तो कोई अद्भुत चित्रकार है। हमें बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभाओं को पहचानकर उनको पुष्पित और पल्लवित करना होगा। मित्र और सहायक बनकर उनकी वैचारिक क्षमता और स्वतंत्र दृष्टिकोण विकसित करना होगा। परीक्षा के डर के स्थान पर एक स्वस्थ खेल भावना विकसित करनी होगी। शिक्षा और जीवन में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने पर बल देना होगा। हमें बच्चों की असली बुद्धिमत्ता का आकलन करना होगा, जिससे वे समृद्ध और विकसित समाज के निर्माण में सहायक बन पाएंगे।