Story of balpan ki chanchalata
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बालपन की चंचलता
बालपन यानी बचपन के वो दिन कितनी सुहाने थे। यह आज एहसास होता है। मानव के जीवन में हर किसी का बचपन सुहाना ही होता है, चाहे वह कितनी भी अभावों से भरा हो या गरीबी से भरा। भले ही आगे जीवन बचपन के दिनों से अधिक बहुत कुछ हासिल कर लें, लेकिन बचपन के दिन हमेशा याद आते हैं।
बचपन का आनंद कुछ अलग ही होता था क्योंकि उस समय जीवन का तनाव नहीं होता था, भविष्य की चिंता नहीं होती। अपने ही आप में मस्त रहते थे। न रोजी-रोटी की कमाने की चिंता और न ही पहनने ओढने की चिंता, जो मिला खा लिया, जो मिला ओढ़ लिया।
बालपन की वो चंचलता आज भी याद आती है, जब छोटी छोटी बातों के लिए अपने माता पिता के सामने मचल होते थे।
तरह-तरह खिलौनों का संग्रह करते और अनेक तरह की अनुपयोगी वस्तु को जमा करते और उन्हें जमा करके खुश होते। बालपन की वो चंचलता याद आती है, जब मदमस्त होकर खेत-खलिहानों, गली-कूचों, बाग-बगीचों में घूमने निकल जाते। पेड़ों पर चढ़ जाते। फल तोड़ते और उछलते कूदते। धूल भरे मैदानों में दौड़ लगाते, धूल से बदन सन जाता लेकिन कोई फिक्र नही।
रेत के घरौंदे बनाना, गुड्डे-गुड़ियों से खेलना, लुका-छिपी खेलना और दिन-भर इधर-उधर भटकना बचपन के चंचल मन का सबूत थे।
घर वापस लौटकर माँ की मार खाना और फिर थोड़ी देर बाद फिर सबकुछ भूलकर अपने में मस्त हो जाना याद आता है। माँ के सामने छोटी-छोटी चीज की जिद करना और उसके लिये आँसुओं की नदियां बहा देना याद आता है।
बालपन की नासमझी में जानवरों को पत्थर मारना, बड़े-बूढ़ों का मजाक उड़ाना और उनकी नकल कराना आदि याद आता जो बड़े होने पर अहसास हुआ कि वो सब करना गलत था। फिर भी बचपन की वो चंचलता का मजा ही कुछ अलग था, जो जीवन भर याद रहता है।
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