STORY ON > मिट्टी का मोल
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हाल में मध्यप्रदेश माटी कला बोर्ड द्वारा आयोजित मिट्टी की कलाकृतियों, बर्तनों की प्रदर्शनी में जाने का मौका मिला। इसी बहाने मिट्टी की याद आ गई। मिट्टी के कलाकारों का कला-बोध आश्चर्यजनक था। उनकी सौंदर्य-दृष्टि देखते ही बनती थी। मिट्टी के खिलौने, सजावटी सामान और बर्तन हमारी कला दृष्टि को जाग्रत कर देने की क्षमता रखते हैं। हालांकि माटी गढ़ने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका मुकाबला स्टील से भी है। वे तो खुद में मगन मिट्टी को गूंधते और उसे अलग-अलग कला स्वरूपों में गढ़ने में मगन रहते हैं।
समझ तो हमारी कमजोर हो गई है। सच यह है कि कला का मोल समझने की दक्षता हम खोते जा रहे हैं। हम यह भी भूल गए हैं कि मिट्टी दरअसल हमारे अवचेतन में बसी है। मिट्टी में मिलना एक तरह से पुनर्जन्म की प्रक्रिया है। अल्लामा इकबाल ने क्या खूब कहा है- ‘मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहे, कि दाना खाक में मिल कर गुलो-गुलजार होता है।’
जो लोग शहरों-महानगरों के सिर्फ रेस्टोरेंट-संस्कृति की सीमा में नहीं रहते होंगे या जो थोड़ा जमीनी हकीकतों से भी रूबरू होते रहते होंगे, उन्हें पता होगा कि आज भी कई इलाकों में कुल्हड़ में चाय मिलती है। गरमियों में जगह-जगह मटके रखे दिख जाते हैं। गांवों में आज भी जनजातीय समुदाय अनाज का भंडारण करने के लिए मिट्टी की कोठी बनाते हैं। दिवाली आते-आते मिट्टी के दीए उन्हीं बाजारों की रौनक बन जाते है, जहां स्टील का राज है। पूजा में मिट्टी के दीए और लक्ष्मी और गणेश की मूर्तियां श्रद्धा से खरीदी जाती हैं। कायदे से देखें तो कुम्हार केवल कुम्हार नहीं है। वह तो लगातार हमारी स्मृतियों को जाग्रत करता रहता है कि हम मिट्टी के प्रति श्रद्धा को विस्मृत नहीं होने दें। वह हमारी पर्यावरणीय चेतना को आवाज देता है- ‘जागते रहो।’
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