Stri Shiksha Ke Virodhi kutarko ka Khandan pe speech
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जब पढ़े-लिखे लोगों द्वारा स्त्राी-शिक्षा के कार्य की अनेक कुतर्कों द्वारा निंदा की जाती है, तो लेखक दुखी हो उठता है। इन शिक्षित लोगों में वे लोग शामिल हैं, जो धर्म-शास्त्रों के ज्ञाता, शिक्षक, विचारक, सुमार्गगामी, पथप्रदर्शक आदि हैं। लेखक का विचार है कि संस्कृत के नाटकों में पढ़ी-लिखी या कुलीन स्त्रिायों को गँवारों की भाषा का प्रयोग करते दिखाया गया है। स्त्रिायों को शिक्षित करना अनर्थकारी समझा गया है। शकुंतला का उदाहरण इस रूप में दिया गया है कि उसने दुष्यंत को कापफी कठोर शब्द कहे हैं। लेखक तर्वफ देता है कि विद्वानों द्वारा ऐसा करना गलत है। क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नहीं बोल सकती? बुद्ध् से लेकर भगवान महावीर तक ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिए। तो क्या वे अपढ़ या गँवार थे? इतने समृद्ध् प्राकृत साहित्य के रचयितागण क्या गँवार थे? आज भी एक सुशिक्षित व्यक्ति आपसी बातचीत अपनी क्षेत्राीय भाषा-- मराठी, बांग्ला, पंजाबी, कन्नड़, मलयालम आदि में करता है तो क्या वह गँवार है? इन सबका उत्तर है नहीं।
जिस समय नाट्य-शास्त्रिायों ने नाट्य-संबंधी नियम बनाए थे, उस समय सर्वजन की भाषा संस्कृत न थी। अतः उन्होंने स्त्रिायों तथा सामान्य जनों की भाषा ‘प्राकृत’ रखी तथा पढ़े-लिखों की भाषा संस्कृत। लेखक अपना यह अकाट्य तर्वफ देता है कि शास्त्रों में बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा मिलती है, किंतु क्या उनके सीखने से संबद्ध् कोई पुस्तक या पांडुलिपि आज तक मिली है? उसी प्रकार यदि पा्र चीन समय में र्कोइ भी बालिका (नारी) विद्यालय की जानकारी नहीं मिलती है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि सभी स्त्रिायाँ गँवार थीं? लेखक विविध कालों की अनेकानेक स्त्रिायों- शीला, विज्जा एवं बौद्ध कालीन स्त्रिायों के अनेक उदाहरण देकर उनके शिक्षित होने की बात की पुष्टि करता है। द्विवेदी जी कहते हैं कि जब प्राचीन रूप में स्त्रिायों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने तक की आजादी मिली हुई थी, तो यह बात विश्वास एवं तर्वफ दोनों से परे लगती है कि उन्हें शिक्षा नहीं दी जाती थी।
उपर्युक्त तर्कों के अलावा लेखक समीक्षात्मक ढंग से कहता है कि यदि मान भी लिया जाए कि प्राचीन काल में सभी स्त्रिायाँ अपढ़ थीं। हो सकता है, उस समय उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता न रही हो। किंतु समय की वर्तमान माँग के अनुसार स्त्रिायों को अवश्य शिक्षित करना चाहिए।
लेखक दकियानूसी विचारधराओं वाले विद्वानों से कहते हैं कि उन्हें पुरानी मान्यताओं से उबरकर सोच में नयापन ले आना चाहिए। इस सदंर्भ में वे कहते हैं कि जो लोग पुराणों में पढी़ -लिखी स्त्रिायों के हवाले माँगते हैं, उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्ध का तिरेपनवाँ अध्याय पढ़ना चाहिए। उसमें रुक्मिणी-हरण की कथा है। उसमें रुक्मिणी ने एक लंबा-चैाड़ा पत्र एकांत में लिखकर श्रीकृष्ण को भेजा था, वह तो प्राकृत में न था। लेखक आगे कहते हैं कि अनर्थ कभी नहीं पढ़ना चाहिए। वे सीता, शकुंतला आदि के उन प्रसंगों के उदाहरण देते हैं, जो उन्होंने अपने-अपने पतियों को कहे थे। इसलिए लेखक सार रूप में कहते हैं कि हमें दकियानूसी विचारों से आगे निकलकर देश-काल की माँग के अनुसार सबको शिक्षित करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्त्राी-शिक्षा को प्राचीन मान्यताओं का हवाला देकर उन्हें शिक्षा से वंचित करना बहुत
बड़ा मानसिक भ्रम है।
जब पढ़े-लिखे लोगों द्वारा स्त्राी-शिक्षा के कार्य की अनेक कुतर्कों द्वारा निंदा की जाती है, तो लेखक दुखी हो उठता है। इन शिक्षित लोगों में वे लोग शामिल हैं, जो धर्म-शास्त्रों के ज्ञाता, शिक्षक, विचारक, सुमार्गगामी, पथप्रदर्शक आदि हैं। लेखक का विचार है कि संस्कृत के नाटकों में पढ़ी-लिखी या कुलीन स्त्रिायों को गँवारों की भाषा का प्रयोग करते दिखाया गया है। स्त्रिायों को शिक्षित करना अनर्थकारी समझा गया है। शकुंतला का उदाहरण इस रूप में दिया गया है कि उसने दुष्यंत को कापफी कठोर शब्द कहे हैं। लेखक तर्वफ देता है कि विद्वानों द्वारा ऐसा करना गलत है। क्या कोई सुशिक्षित नारी प्राकृत भाषा नहीं बोल सकती? बुद्ध् से लेकर भगवान महावीर तक ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में ही दिए। तो क्या वे अपढ़ या गँवार थे? इतने समृद्ध् प्राकृत साहित्य के रचयितागण क्या गँवार थे? आज भी एक सुशिक्षित व्यक्ति आपसी बातचीत अपनी क्षेत्राीय भाषा-- मराठी, बांग्ला, पंजाबी, कन्नड़, मलयालम आदि में करता है तो क्या वह गँवार है? इन सबका उत्तर है नहीं।
जिस समय नाट्य-शास्त्रिायों ने नाट्य-संबंधी नियम बनाए थे, उस समय सर्वजन की भाषा संस्कृत न थी। अतः उन्होंने स्त्रिायों तथा सामान्य जनों की भाषा ‘प्राकृत’ रखी तथा पढ़े-लिखों की भाषा संस्कृत। लेखक अपना यह अकाट्य तर्वफ देता है कि शास्त्रों में बड़े-बड़े विद्वानों की चर्चा मिलती है, किंतु क्या उनके सीखने से संबद्ध् कोई पुस्तक या पांडुलिपि आज तक मिली है? उसी प्रकार यदि पा्र चीन समय में र्कोइ भी बालिका (नारी) विद्यालय की जानकारी नहीं मिलती है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि सभी स्त्रिायाँ गँवार थीं? लेखक विविध कालों की अनेकानेक स्त्रिायों- शीला, विज्जा एवं बौद्ध कालीन स्त्रिायों के अनेक उदाहरण देकर उनके शिक्षित होने की बात की पुष्टि करता है। द्विवेदी जी कहते हैं कि जब प्राचीन रूप में स्त्रिायों को नाच-गान, फूल चुनने, हार बनाने तक की आजादी मिली हुई थी, तो यह बात विश्वास एवं तर्वफ दोनों से परे लगती है कि उन्हें शिक्षा नहीं दी जाती थी।
उपर्युक्त तर्कों के अलावा लेखक समीक्षात्मक ढंग से कहता है कि यदि मान भी लिया जाए कि प्राचीन काल में सभी स्त्रिायाँ अपढ़ थीं। हो सकता है, उस समय उन्हें पढ़ाने की आवश्यकता न रही हो। किंतु समय की वर्तमान माँग के अनुसार स्त्रिायों को अवश्य शिक्षित करना चाहिए।
लेखक दकियानूसी विचारधराओं वाले विद्वानों से कहते हैं कि उन्हें पुरानी मान्यताओं से उबरकर सोच में नयापन ले आना चाहिए। इस सदंर्भ में वे कहते हैं कि जो लोग पुराणों में पढी़ -लिखी स्त्रिायों के हवाले माँगते हैं, उन्हें श्रीमद्भागवत, दशमस्कंध के उत्तरार्ध का तिरेपनवाँ अध्याय पढ़ना चाहिए। उसमें रुक्मिणी-हरण की कथा है। उसमें रुक्मिणी ने एक लंबा-चैाड़ा पत्र एकांत में लिखकर श्रीकृष्ण को भेजा था, वह तो प्राकृत में न था। लेखक आगे कहते हैं कि अनर्थ कभी नहीं पढ़ना चाहिए। वे सीता, शकुंतला आदि के उन प्रसंगों के उदाहरण देते हैं, जो उन्होंने अपने-अपने पतियों को कहे थे। इसलिए लेखक सार रूप में कहते हैं कि हमें दकियानूसी विचारों से आगे निकलकर देश-काल की माँग के अनुसार सबको शिक्षित करने का प्रयत्न करना चाहिए। स्त्राी-शिक्षा को प्राचीन मान्यताओं का हवाला देकर उन्हें शिक्षा से वंचित करना बहुत
बड़ा मानसिक भ्रम है।
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