Student life essay in hindi
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बाल्यावस्था बीतने पर जब कोई बच्चा चार–पाँच वर्ष का हो जाता है, तो समय के हिसाब से शिक्षा पाने या पड़ने-लिखने के लिए वह जिस नए क्षेत्र और जीवन में प्रवेश करता है, उसे विद्यार्थी जीवन’ कहा जाता है। उस समय से लेकर लगभग चौबीस-पच्चीस वर्ष की आयु तक का समय या फिर जब तक व्यक्ति नियमपूर्वक परीक्षाएँ पास करने के लिए पढ़ता-लिखता रहा है, तब तक के उसके जीवन को ‘विद्यार्थी जीवन’ कहकर ही संबोधित किया जाता है।
प्राचीन काल में विद्यार्थी का घर-बार से दूर रहकर आश्रमों में जीवन बिताता था तब उसे कठोर अनुशासन में बँधकर रहना पड़ता था। तब विद्यार्थी का जीवन आग में तपाए जानेवाले सोने की तरह तपने के बाद बहुमूल्य कुंदन की तरह निखरकर मूल्यवान हो जाया करता था। धीरे-धीरे विद्यार्जित करने की प्राचीन व्यवस्था समाप्त हुई और मध्ययुगीन मंदिर आदि में चलनेवाली शालाओं और मदरसों का युग आरंभ हुआ जो लगभग 19वीं शताब्दी तक बना रहा। उसके बाद आया ब्रिटिश शासन-काल। इस युग में पहुँचकर धीरे-धीरे विद्यार्थी जीवन की शिक्षा का क्रम तो पूर्णतया बदल ही गया, उसके माध्यम और उद्देश्य भी बदल गए। विद्यार्थी को अनेक विषय एक साथ पढ़ाए जाने लगे। फलस्वरूप वह ‘जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स बट मास्टर ऑफ नन’, अर्थात् कई-कई विषयों का नाम तो जानने लगा, पर पूर्णता किसी में भी हासिल न कर सका। सखेद स्वीकारना पड़ता है कि भारत को स्वतंत्र हुए 70 से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी आज का विद्यार्थी जीवन उसी ढर्रे पर चल रहा है।
विद्यार्थी जीवन को मानव जीवन का सर्वाधिक निश्चित, मौज-मस्ती भरा और सुनहरा काल माना जाता है। इसमें उसका मुख्य कार्य इच्छित रूप से विद्याएँ प्राप्त करना ही हुआ करता है। इसके साथ-साथ ऐसी अच्छी व्यावहारिक बातें भी सीखनी होती हैं जिससे उसका अपना, उसके घर-परिवार और सारे राष्ट्र का जीवन सुखी एवं समृद्ध बन सके। सच्चे और स्वस्थ मन मस्तिष्क से अपने विद्यार्थी जीवन में व्यक्ति जो कुछ भी सीख पाता है, उसी के अनुरूप ही उसके भावी जीवन का स्वरूप बनता है। इसी कारण अकसर विद्यार्थी जीवन को निर्माणकाल भी कहा जाता है।
अतः इस निर्माणकाल में व्यक्ति को हर प्रकार से सावधान रहकर विद्याओं का अभ्यास करना पड़ता है, ताकि किसी तरह की बुराई उसे छू न सके और वह भविष्य का एक संपूर्ण एवं अच्छा नागरिक बन सके।