Sujan bhagt khani me munshi premchnd ky kehna chahte hai
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किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं।
दिव्य समाज की भाँति वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते। सुजान
की खेती में कई साल से कंचन बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी किसान
करते थे, पर सुजान के चंद्रमा बली थे, ऊसर में भी दाना छींट आता तो
कुछ न कुछ पैदा हो जाता था। तीन वर्ष लगातार ऊख लगती गयी। उधर
गुड़ का भाव तेज था। कोई दो-ढाई हजार हाथ में आ गये। बस चित्त की
वृत्ति धर्म की ओर झुक पड़ी। साधु-संतों का आदर-सत्कार होने लगा, द्वार
पर धूनी जलने लगी, कानूनगो इलाके में आते, तो सुजान महतो के चौपाल
में ठहरते। हल्के के हेड कांस्टेबल, थानेदार, शिक्षा-विभाग के अफसर, एक
न एक उस चौपाल में पड़ा ही रहता। महतो मारे खुशी के फूले न समाते।
धन्य भाग ! उसके द्वार पर अब इतने बड़े-बड़े हाकिम आ कर ठहरते हैं।
जिन हाकिमों के सामने उसका मुँह न खुलता था, उन्हीं की अब 'महतो-महतो'
करते जबान सूखती थी। कभी-कभी भजन-भाव हो जाता। एक महात्मा ने
डौल अच्छा देखा तो गाँव में आसन जमा दिया। गाँजे और चरस की बहार
उड़ने लगी। एक ढोलक आयी, मजीरे मँगाये गये, सत्संग होने लगा। यह
सब सुजान के दम का जलूस था। घर में सेरों दूध होता, मगर सुजान के
कंठ तले एक बूँद भी जाने की कसम थी। कभी हाकिम लोग चखते, कभी
महात्मा लोग। किसान को दूध-घी से क्या मतलब, उसे रोटी और साग चाहिए।
सुजान की नम्रता का अब पारावार न था। सबके सामने सिर झुकाये रहता,
कहीं लोग यह न कहने लगें कि धन पा कर उसे घमंड हो गया है। गाँव
में कुल तीन कुएँ थे, बहुत-से खेतों में पानी न पहुँचता था, खेती मारी जाती
1408 : मानसरोवर
थी। सुजान ने एक पक्का कुआँ बनवा दिया। कुएँ का विवाह हुआ, यज्ञ
हुआ, ब्रह्मभोज हुआ। जिस दिन पहली बार पुर चला, सुजान को मानो चारों
पदार्थ मिल गये। जो काम गाँव में किसी ने न किया था, वह बाप-दादा के
पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर दिखाया।
एक दिन गाँव में गया के यात्री आ कर ठहरे। सुजान ही के द्वार पर
उनका भोजन बना। सुजान के मन में भी गया करने की बहुत दिनों से इच्छा
थी। यह अच्छा अवसर देख कर वह भी चलने को तैयार हो गया।
उसकी स्त्री बुलाकी ने कहा —अभी रहने दो, अगले साल चलेंगे।
सुजान ने गंभीर भाव से कहा —अगले साल क्या होगा, कौन जानता
है। धर्म के काम में मीनमेख निकालना अच्छा नहीं। जिंदगानी का