summary of book kafan in hindi
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प्रेमचंद (1880-1936 ई.) विश्वस्तर के महान् उपन्यासकार और कहानीकार हैं। उनके उपन्यासों तथा कहानियों में हिन्दी के करोड़ों पाठकों को तो प्रभावित किया ही है, भारत की अन्य भाषाओं के पाठकों के ह्रदयों का स्पर्श भी किया है। उन्होंने रूसी, फ्रेंच, अंग्रेजी, चीनी, जापानी इत्यादि भाषाओं में हुए अनुवादों के द्वारा विश्व भर में हिंदी का गौरव बढ़ाया है।
प्रेमचंद जनता के कलाकार थे। उनकी कृतियों में प्रस्तुत जनता के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, उत्थान-पतन इत्यादि के सजीव चित्र हमारे ह्रदयों को हमेशा छूते रहेंगे। वे रवीन्द्र औऱ शरत् के साथ भारत के प्रमुख कथाकार हैं, जिनको पढ़े बिना भारत को समझना संभव नहीं है।
कफ़न
झोंपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देनेवाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा—मालूम होता है, बचेगी नहीं। सार दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढ़कर बोला—मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती ? देखकर क्या करूँ ?
‘तू बड़ा बेदर्द है वे ! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई !’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घंटे-भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुट्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता। और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थ। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता।
अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें संतोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका ! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जीये जाते थे। संसार की चिंताओं से मुक्त ! कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ-साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठ कर आलू भून रहे थे, जो कि किसी के खेत से खोज लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जबसे यह औरत आई थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जबसे वह आई, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्ब्याज भाव से दुगनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों शायद इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाय, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा—जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी ? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या ? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है !
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलूओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला—मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न ?’
‘मेरी औरत जब मर रही थी; तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और मुझसे लजायेगी कि नहीं ? जिसका कभी मुँह नहीं देखा; आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ ! उसे तन की सुध भी तो न होगी ? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी !’
‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा ? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में !’
‘सब कुछ आ जायगा। भगवान् दें तो ! जो लोग अभी पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठा
प्रेमचंद जनता के कलाकार थे। उनकी कृतियों में प्रस्तुत जनता के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा, उत्थान-पतन इत्यादि के सजीव चित्र हमारे ह्रदयों को हमेशा छूते रहेंगे। वे रवीन्द्र औऱ शरत् के साथ भारत के प्रमुख कथाकार हैं, जिनको पढ़े बिना भारत को समझना संभव नहीं है।
कफ़न
झोंपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देनेवाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।
घीसू ने कहा—मालूम होता है, बचेगी नहीं। सार दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।
माधव चिढ़कर बोला—मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती ? देखकर क्या करूँ ?
‘तू बड़ा बेदर्द है वे ! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई !’
‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घंटे-भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुट्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता। और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थ। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता।
अगर दोनों साधु होते, तो उन्हें संतोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका ! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जीये जाते थे। संसार की चिंताओं से मुक्त ! कर्ज से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ-साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठ कर आलू भून रहे थे, जो कि किसी के खेत से खोज लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जबसे यह औरत आई थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जबसे वह आई, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्ब्याज भाव से दुगनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों शायद इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाय, तो आराम से सोयें।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा—जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी ? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या ? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है !
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलूओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला—मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न ?’
‘मेरी औरत जब मर रही थी; तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और मुझसे लजायेगी कि नहीं ? जिसका कभी मुँह नहीं देखा; आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ ! उसे तन की सुध भी तो न होगी ? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी !’
‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा ? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में !’
‘सब कुछ आ जायगा। भगवान् दें तो ! जो लोग अभी पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठा
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