summary of gaban in 5-6 pagesby munshi premchand... its urgent.... plz
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ग़बन प्रेमचन्द के एक विशेष चिन्ताकुल विषय से सम्बन्धित उपन्यास है। यह विषय है, गहनों के प्रति पत्नी के लगाव का पति के जीवन पर प्रभाव। गबन में टूटते मूल्यों के अंधेरे में भटकते मध्यवर्ग का वास्तविक चित्रण किया गया। इन्होंने समझौतापरस्त और महत्वाकांक्षा से पूर्ण मनोवृत्ति तथा पुलिस के चरित्र को बेबाकी से प्रस्तुत करते हुए कहानी को जीवंत बना दिया गया है।
इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पहली नारी समस्या को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा है और उसे तत्कालीन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से जोड़कर देखा है। सामाजिक जीवन और कथा-साहित्य के लिए यह एक नई दिशा की ओर संकेत करता है। यह उपन्यास जीवन की असलियत की छानबीन अधिक गहराई से करता है, भ्रम को तोड़ता है। नए रास्ते तलाशने के लिए पाठक को नई प्रेरणा देता है।
कथानक संपादित करें
‘ग़बन’ की नायिका, जालपा, एक चन्द्रहार पाने के लिए लालायित है। उसका पति कम वेतन वाला क्लर्क है यद्यपि वह अपनी पत्नी के सामने बहुत अमीर होने का अभिनय करता है। अपनी पत्नी को संतुष्ट करने के लिए वह अपने दफ्तर से ग़बन करता है और भागकर कलकत्ता चला जाता है जहां एक कुंजड़ा और उसकी पत्नी उसे शरण देते हैं। डकैती के एक जाली मामले में पुलिस उसे फंसाकर मुखबिर की भूमिका में प्रस्तुत करती है।
उसकी पत्नी परिताप से भरी कलकत्ता आती है और उसे जेल से निकालने में सहायक होती है। इसी बीच पुलिस की तानाशाही के विरूद्ध एक बड़ी जन-जागृति शुरू होती है। इस उपन्यास में विराट जन-आन्दोलनों के स्पर्श का अनुभव पाठक को होता है। लघु घटनाओं से आरंभ होकर राष्ट्रीय जीवन में बड़े-बड़े तूफान उठ खड़े होते हैं। एक क्षुद्र वृत्ति की लोभी स्त्री से राष्ट्र-नायिका में जालपा की परिणति प्रेमचंद की कलम की कलात्मकता की पराकाष्ठा है।
इसमें दो कथानक हैं - एक प्रयाग से सम्बद्ध और दूसरा कोलकाता से सम्बद्ध। दोनों कथानक जालपाकी मध्यस्थता द्वारा जोड़ दिए गये हैं। कथानक में अनावश्यक घटनाओं और विस्तार का अभाव है। प्रयाग के छोटे से गाँव के जमींदार के मुख़्तार महाशय दीनदयाल और मानकी की इकलौती पुत्री जालपा को बचपन से ही आभूषणों, विशेषत: चन्द्रहार की लालसा लग गयी थी। वह स्वप्न देखती थी कि विवाह के समय उसके लिए चन्द्रहार ज़रूर चढ़ेगा। जब उसका विवाह कचहरी में नौकर मुंशी दयानाथ के बेकार पुत्र रमानाथ से हुआ तो चढ़ावे में और गहने तो थे, चन्द्रहार न था। इससे जालपा को घोर निराशा हुई।
प्रयाग से सम्बद्ध संपादित करें
दीनदयाल और दयानाथ दोनों ने अपनी- अपनी बिसात से ज़्यादा विवाह में खर्च किया। दयानाथ ने कचहरी में रहते हुए रिश्वत की कमाई से मुँह मोड़ रखा था। पुत्र के विवाह में वे कर्ज़ से लद गये। दयानाथ तो चन्द्रहार भी चढ़ाना चाहते थे लेकिन उनकी पत्नी जागेश्वरी ने उनका प्रस्ताव रद्द कर दिया था। जालपा की एक सखी शहजादी उसे चन्द्रहार प्राप्त करने के लिए और उत्तेजित करती है। जालपा चन्द्रहार की टेक लेकर ही ससुराल गयी। घर की हालत तो खस्ता थी, किंतु रमानाथ ने जालपा के सामने अपने घराने की बड़ी शान मार रखी थी। कर्ज़ उतारने के लिए जब पिता ने जालपा के कुछ गहने चुपके से लाने के लिए कहा तो रमानाथ कुछ मानसिक संघर्ष के बाद आभूषणों का सन्दूक चुपके से उठाकर उन्हें दे आते है और जालपा से चोरी हो जाने का बहाना कर देते हैं किंतु अपने इस कपटपूर्ण व्यवहार से उन्हें आत्मग्लानि होती है, विशेषत: जब कि वे अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते हैं। जालपा का जीवन तो क्षुब्ध हो उठता है। अब रमानाथ को नौकरी की चिंता होती है। वे अपने शतरंज के साथी विधुर और चुंगी में नौकरी करने वाले रमेश बाबू की सहायता से चुंगी में तीस रुपये की मासिक नौकरी पा जाते हैं। जालपा को वे अपना वेतन चालीस रुपये बताते हैं। इसी समय जालपा को अपनी माता का भेजा हुआ चन्द्रहार मिलता है, किंतु दया में दिया हुआ दान समझकर वह उसे स्वीकार नहीं करती। अब रमानाथ में जालपा के लिए गहने बनवाने का हौसला पैदा होता है। इस हौसले को वे सराफों के कर्ज़ से लद जाने पर भी पूरा है। इन्दुभूषण वकील की पत्नी रतन को जालपा के जड़ाऊ कंगन बहुत अच्छे लगते हैं। वैसे ही कंगन लाने के लिए वह रमानाथ को 600 रुपये देती है। सर्राफ इन रुपयों को कर्जखाते में जमाकर रमानाथ को कंगन उधार देने से इंकार कर देता हैं। रतन कंगनों के लिए बराबर तकाज़ा करती रहती है। अंत में वह अपने रुपये ही वापस लाने के लिए कहती है। उसके रुपये वापस करने के ख्याल से रमानाथ चुंगी के रुपये ही घर ले आते हैं। उनकी अनुपस्थिति में जब रतन अपने रुपये माँगने आती हैं तो जालपा उन्हीं रुपयों को उठाकर दे देती हैं। घर आने पर जब रमानाथ को पता लगा तो उन्हें बड़ी चिंता हुई। ग़बन के मामले में उनकी सज़ा हो सकती थी। सारी परिस्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने अपनी पत्नी के नाम एक पत्र लिखा। वे उसे अपनी पत्नी को देने या न देने के बारे में सोच ही रहे थे, कि वह पत्र जालपा को मिल जाता हैं। उसे पत्र पढ़ते देखकर उन्हें इतनी आत्म- ग्लानि होती है कि वे घर से भाग जाते हैं जालपा अपने गहने बेचकर चुंगी के रुपये लौटा देती है। इसके पश्चात कथा कलकत्ते की ओर मुड़ती है।
https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%AC%E0%A4%A8_(%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8)
आपने जबसे होश संभाला आप प्रेमचंद को पढ़ते और प्यार करते आये हैं। बचपन से लेकर उम्र ढलने तक प्रेमचंद आपके संग-संग चलता रहा है। निश्चय ही आप से कितनों का ही प्रेमचंद साहित्य से गहरा परिचय भी होगा और मुझे विश्वास है कि प्रेमचंद के जीवन-परिचय की मोटी-मोटी बातें भी आप काफी कुछ जानते होंगे। जैसे कि उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नाम के एक गाँव में हुआ था और पिता मुंशी अजायब लाल एक डाकमुंशी थे। घर पर साधारण खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की मुंहताजी तो न थी, पर इतना शायद कभी न हो पाया कि उधर से निश्चिंत हुआ जा सके।
मगर यह बात तो बड़े लोगों की चिन्ता थी, जहाँ तक इस लड़के नवाब या धनपत की बात थी-यही उनके असल नाम थे, ‘प्रेमचंद’ तो लेखकीय उपनाम था, ठीक-ठीक अर्थों में छद्म नाम, जो उन्होंने ‘सोजे वतन’ नामक अपनी पुस्तिका के सरकार द्वारा जब्त करके जला दिये जाने के बाद 1910 में अपनाया था, ताकि उस गोरी सरकार की नौकरी में रहते हुए भी वह पूर्ववत् लिखते रह सकें और उन्हें फिर राजकोप का शिकार न बनना पड़े-उसका बचपन भी गाँव के और सब बच्चों की तरह खेलकूद में बीता, जो बचपन का अपना वरदान है।
छः सात साल की उम्र में, कायस्थ घरानों की पुरानी परंपरा के अनुसार, उसे भी पास ही लालगंज नाम के एक गांव में एक मौलवी साहब के पास जो पेशे से दर्जी थे, फारसी और उसी के साथ घलुए में उर्दू पढ़ने के लिए भेजा जाने लगा, पर उससे नवाब के खेल तमाशे में कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि मौलवी साहब काफी मौजी तबियत के ठीलमढाल आदमी थे, जिनका किस्सा नवाब ने आगे चलकर अपनी कहानी ‘चोरी’ में खूब रस ले-लेकर सुनाया है, पर वह जैसे ही ढीलमढाल रहे हों, वह शायद पढ़ाते अच्छा ही थे, क्योंकि लोग कहते हैं, मुंशी प्रेमचंद्र का फारसी पर अच्छा अधिकार था। फारसी भाषा का प्यार भी मौलवी साहब ने लड़के के मन में जरूर जगाया होगा, क्योंकि बी.ए. तक की परीक्षा में प्रेमचंद्र का एक विषय फारसी रहा।
थोड़ी-सी पढ़ाई और ढेरों खिलवाड़ और गांव की जिंदगी के अपनी मर्जी के साथ माँ और दादी के लाड़-प्यार में लिपटे हुए दिन बड़ी मस्ती में बीत रहे थे कि गोया आसमान से इस बच्चे का इतना सुख न देखा गया और उसी साल माँ ने बिस्तर पकड़ लिया। मुंशी अजायब लाल की ही तरह वह भी संग्रहणी की पुरानी मरीज थीं। इस बार का हमला जानलेवा साबित हुआ। नवाब तब सात साल का था और उसकी बड़ी सगी बहन सुग्गी पंद्रह की। उसी साल उसका ब्याह मिर्जापुर के पास लहौली नाम के गांव में हुआ था गौना भी हो गया था। मां के मरने के आठ-दस रोज पहले आयीं, बड़ी-बड़ी सेवा की। नवाब भी मां के सिरहाने बैठा पंखा झलता रहा और उसके चचेरे बड़े भाई बलदेव लाल, जो बीस साल के नौजवान थे और एक अंग्रेज के यहां टेनिस की गेंद उठा-उठाकर खिलाड़ी को देने पर नौकर थे, दवा-दारु के इंतजाम में लगे रहते थे, लेकिन सब व्यर्थ हुआ।
सात साल के नवाब को अकेला छोड़कर मां चल बसी और उसी दिन वह नवाब, जिसे मां पान के पत्ते की तरह फेरती रहती थी, देखते-देखते सयाना हो गया। और उसके सर पर तपता हुआ नीला आकाश था, नीचे जलती हुए भूरी धरती थी, पैरों में जूते न थे और न बदन पर साबित कपड़े, इसलिए, नहीं कि यकायक पैसे का टोटा पड़ गया था, बल्कि इस लिये कि इन सब पर नजर रखने वाली मां की आंखें मुँद गयी थीं। बाप यों भी कब मां की जगह ले पाता है, उस पर से वह काम के बोझ से दबे रहते। तबादलों का चक्कर अलग से। कभी बाँदा तो कभी बस्ती, तो कभी गोरखपुर तो कभी कानपुर, कभी इलाहाबाद तो कभी लखनऊ, कभी जीयनपुर तो कभी बड़हलगंज किसी एक जगह जम के न रहने पाते। बेटे को उनके संग-साथ की, दोस्ती की भी जरूरत हो सकती है, इसके लिए उनके पास न तो समझ थी और न समय। ‘कजाकी’ में मुंशीजी ने शायद अपनी ही बात बच्चे के मुँह से कहलायी है:
बाबूजी बड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम बहुत करना पड़ता था, इसी से बात-बात से पर झुँझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी आता ही न था, वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे।