Summary of Isa ke ghar insaan by mannu bhandari.
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फाटक के ठीक सामने जेल था।
बरामदे में लेटी मिसेज़ शुक्ला की शून्य नज़रें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकी थीं। मैंने हाथ की किताबें कुर्सी पर पटकते हुए कहा ”कहिए, कैसी तबीयत रही आज?“
एक धीमी-सी मुस्कराहट उनके शुष्क अधरों पर फैल गई। बोलीं ”ठीक ही रही! सरीन नहीं आई?“
”मेरे दोनो पीरियड्स ख़ाली थे सो मैं चली आई, सरीन यह पीरियड लेकर आएगी।“ दोनों कोहनियों पर ज़ोर देकर उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, मैंने सहारा देकर उन्हें तकिए के सहारे बिठा दिया। एक क्षण को उनके जर्द चेहरे पर व्यथा की लकीरें उभर आईं। अपने-आपको आरामदेह स्थिति में करते हुए उन्होंने पूछा ”कैसा लग रहा है कॉलेज? मन लग जाएगा ना?“
”हाँ.. मन तो लग ही जाएगा। मुझे तो यह जगह ही बहुत पसन्द है। पहाड़ियों से घिरा हुआ यह शहर और एकान्त में बसा यह कॉलेज। जिधर नज़र दौड़ाओ हर तरफ हरा-भरा दिखाई देता है।“ तभी मेरी नज़र सामने की जेल की दीवारों से टकरा गई। मैंने पूछा ”पर एक बात समझ में नहीं आई। यह कॉलेज जेल के सामने क्यों बनाया? फाटक से निकलते ही जेल के दर्शन होते हैं तो लगता है, सवेरे-सवेरे मानो ख़ाली घड़ा देख लिया हो; मन जाने कैसा-कैसा हो उठता है।“
रूख़े केशों की लटों को अपने शिथिल हाथों से पीछे करते हुए मिसेज़ शुक्ला की कान्तिहीन आँखें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकीं। बोलीं ”सरीन जब आई थी तो उसने भी यही बात पूछी थी।’’
पता नहीं क्यों कॉलेज के लिए जगह चुनी गई।“ फिर उनकी खोई-खोई दृष्टि दीवारों में जाने क्या खोजने लगी पैरों को कुछ फैलाकर उन्होंने एक बार फिर अपनी स्थिति को ठीक किया, और बोलीं ”तुम लोग जब कॉलेज चली जाती हो तो मैं लेटी-लेटी इन दीवारों को ही देखा करती हूँ, तब मन में लालसा उठती है कि काश! ये दीवारें किसी तरह हट जातीं या पारदर्शी ही हो जातीं और मैं देख पाती कि उस पार क्या है!
सवेरे शाम इन दीवारों को बेधकर आती हुई कैदियों के पैरों की बेड़ियों की झनकार मेरे मन को मथती रहती है और अनायास ही मन उन कैदियों के जीवन की विचित्रा-विचित्रा कल्पनाओं से भर जाया करता है। इस अनन्त आकाश के नीचे और विशाल भूमि के ऊपर रहकर भी कितनी सीमित, कितना घुटा-घुटा रहता होगा उनका जीवन! चाँद और सितारों से सजी इस निहायत ही ख़ूबसूरत दुनिया का सौंदर्य, परिवार वालों का स्नेह और प्यार, ज़िन्दगी में मस्ती और बहारों के अरमान क्या इन्हीं दीवारों से टकराकर चूर-चूर न हो जाया करते होंगे?
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ईसा के घर इंसान
मन्नू भंडारी: कहानी - ईसा के घर इंसान Manu Bhandari - Hindi Kahani - Isa Ke Ghar Insaan
फाटक के ठीक सामने जेल था।
बरामदे में लेटी मिसेज़ शुक्ला की शून्य नज़रें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकी थीं। मैंने हाथ की किताबें कुर्सी पर पटकते हुए कहा ”कहिए, कैसी तबीयत रही आज?“
एक धीमी-सी मुस्कराहट उनके शुष्क अधरों पर फैल गई। बोलीं ”ठीक ही रही! सरीन नहीं आई?“
”मेरे दोनो पीरियड्स ख़ाली थे सो मैं चली आई, सरीन यह पीरियड लेकर आएगी।“ दोनों कोहनियों पर ज़ोर देकर उन्होंने उठने का प्रयत्न किया, मैंने सहारा देकर उन्हें तकिए के सहारे बिठा दिया। एक क्षण को उनके जर्द चेहरे पर व्यथा की लकीरें उभर आईं। अपने-आपको आरामदेह स्थिति में करते हुए उन्होंने पूछा ”कैसा लग रहा है कॉलेज? मन लग जाएगा ना?“
”हाँ.. मन तो लग ही जाएगा। मुझे तो यह जगह ही बहुत पसन्द है। पहाड़ियों से घिरा हुआ यह शहर और एकान्त में बसा यह कॉलेज। जिधर नज़र दौड़ाओ हर तरफ हरा-भरा दिखाई देता है।“ तभी मेरी नज़र सामने की जेल की दीवारों से टकरा गई। मैंने पूछा ”पर एक बात समझ में नहीं आई। यह कॉलेज जेल के सामने क्यों बनाया? फाटक से निकलते ही जेल के दर्शन होते हैं तो लगता है, सवेरे-सवेरे मानो ख़ाली घड़ा देख लिया हो; मन जाने कैसा-कैसा हो उठता है।“
रूख़े केशों की लटों को अपने शिथिल हाथों से पीछे करते हुए मिसेज़ शुक्ला की कान्तिहीन आँखें जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों पर टिकीं। बोलीं ”सरीन जब आई थी तो उसने भी यही बात पूछी थी।’’
पता नहीं क्यों कॉलेज के लिए जगह चुनी गई।“ फिर उनकी खोई-खोई दृष्टि दीवारों में जाने क्या खोजने लगी पैरों को कुछ फैलाकर उन्होंने एक बार फिर अपनी स्थिति को ठीक किया, और बोलीं ”तुम लोग जब कॉलेज चली जाती हो तो मैं लेटी-लेटी इन दीवारों को ही देखा करती हूँ, तब मन में लालसा उठती है कि काश! ये दीवारें किसी तरह हट जातीं या पारदर्शी ही हो जातीं और मैं देख पाती कि उस पार क्या है!
सवेरे शाम इन दीवारों को बेधकर आती हुई कैदियों के पैरों की बेड़ियों की झनकार मेरे मन को मथती रहती है और अनायास ही मन उन कैदियों के जीवन की विचित्रा-विचित्रा कल्पनाओं से भर जाया करता है। इस अनन्त आकाश के नीचे और विशाल भूमि के ऊपर रहकर भी कितनी सीमित, कितना घुटा-घुटा रहता होगा उनका जीवन! चाँद और सितारों से सजी इस निहायत ही ख़ूबसूरत दुनिया का सौंदर्य, परिवार वालों का स्नेह और प्यार, ज़िन्दगी में मस्ती और बहारों के अरमान क्या इन्हीं दीवारों से टकराकर चूर-चूर न हो जाया करते होंगे?
इन सबसे वंचित कितना उबा देने वाला होता होगा इनका जीवन न आंनद, न उल्लास, न रस।“ और एक गहरी निःश्वास छोड़कर वे फिर बोलीं ”जाने क्या अपराध किए होंगे इन बेचारों ने, और न जाने कि न परिस्थितियों में वे अपराध किए होंगे कि यूँ सब सुखों से वंचित जेल की सीलन भरी अँधेरी कोठरियों में जीवित रहने का नाटक करना पड़ रहा है...।“
तभी दूधवाली के कर्कश स्वर ने मिसेज शुक्ला के भावना-स्त्रोत को रोक दिया। मैं उठी और दूध का बर्तन लाकर दूध लिया। मिसेज शुक्ला बोली ”अब चाय का पानी भी रख ही दो, सरीन आएगी तब तक उबल जाएगा।“
मैं पानी चढ़ाकर फिर अपनी कुर्सी पर आ बैठी। बोली ”मदर ने आपको पूरी तरह आराम करने के लिए कहा है। आपकी जगह जिन्हें रखा गया है, वे कल से काम पर आने लगेंगी। आज शाम को शायद मदर खुद आपको देखने आएँ।“ ”मदर यहाँ की बहुत अच्छी हैं रत्ना! जब मैं यहाँ आई थी तब जानती हो, सारा स्टाफ नन्स का ही था। मेरे लिए तो यही समस्या थी कि इन नन्स के बीच में रहूँगी कैसे। पर मदर के स्वभाव ने आगा-पीछा सोचने का अवसर ही नहीं दिया, बस यहाँ बाँधकर ही रख लिया। फिर तो सरीन और मिश्रा भी आ गई थीं। मिश्रा गई तो तुम आ गईं।“
I will give full answer but it doesn't give more characters.