Summary of 'Kis tarah akhirkaar mai hindi mein aaya'
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लेखक कहते हैं कि वे जिस स्थिति में थे, उसी स्थिति में बस पकड़कर दिल्ली चले आए। दिल्ली आकर वे पेंटिंग सीखने की इच्छा से उकील आर्ट स्वूफल पहुँचे। परीक्षा में पास होने के कारण उन्हें बिना फीस के ही वहाँ भर्ती कर लिया गया। वे करोल बाग में रहकर कनाट प्लेस पेंटिंग सीखने जाने लगे। रास्ते में आते-जाते वे कभी कविता लिखते और कभी ड्राइंग बनाते थे और अपनी ड्राइंग के तत्व खोजने के लिए वे प्रत्येक आदमी का चेहरा गौर से देखते थे। पैसे की बड़ी तंगी रहती थी। कभी-कभी उनके बड़े भाई तेश बहादुर उनके लिए कुछ रुपये भेज देते थे। वे कुछ ध्न साइनबोर्ड लिखकर कमा लेते थे। अतः अपनी टीस को व्यक्त करने के लिए वे कविताएँ और उर्दू में गशल के कुछ शेर भी लिखते थे। उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि उनकी कविताएँ कभी छपेंगी।
उनकी पत्नी टी॰बी॰ की मरीश थीं और उनका देहांत हो चुका था। अतः वे बहुत दुःखी रहते थे। इस समय महाराष्ट्र के एक पत्राकार उनके साथ रहने लगे। इसी समय एक बार क्लास खत्म होने तथा उनके चले जाने के बाद बच्चन जी स्टूडियो में आए थे और लेखक के न मिलने पर वे लेखक के लिए एक नोट छोड़ गए थे। इसके बाद लेखक ने एक अंग्रेशी का साॅनेट लिखा, किंतु बच्चन जी के पास भेजा नहीं। कुछ समय बाद लेखक देहरादून में केमिस्ट की दकुान पर कंपाउंडरी सीखने लगे। वे दुखी और उदास रहते थे। ऐसे में वह लिखा हुआ साॅनेट उन्होंने बच्चन जी को भेज दिया।
देहरादून आने पर बच्चन जी डिस्पेंसरी में आकर उनसे मिले थे। उस दिन मौसम बहुत खराब थाऔर आँधी आ जाने के कारण वे एक गिरते हुए पेड़ के नीचे आते-आते बच गए थे। वे बताते हैं कि बच्चन जी की पत्नी का देहांत हो चुका था। अतः वे भी बहुत दुखी थे। उनकी पत्नी सुख-दुख की युवा संगिनी थीं। वे बात की ध्नी, विशाल हृदय और निश्चय की पक्की थीं। लेखक बीमार रहने लगे थे, अतः बच्चन जी ने उन्हें इलाहाबाद आकर पढ़ने की सलाह दी और वे उनकी बात मानकर इलाहाबाद आ गए। बच्चन जी ने उन्हें एम॰ए॰ में प्रवेश दिला दिया क्योंकि वे चाहते थे कि लेखक काम का आदमी बन जाए क्योंकि स्वयं बच्चन जी ने अंग्रेशी में एम॰ए॰ पफाइनल करनेके बाद 10-12 साल तक नौकरी की थी, विंफतु लेखक सरकारी नौकरी नहीं करना चाहते थे। वे बताते हैं कि उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदू बोर्डिंग हाउस के काॅमन रूम में एक सीट निशुल्क मिल गई। इसके साथ ही पंत जी कीवृफपा से उन्हें इंडियन प्रेस में अनुवाद का काम भी मिल गया। अब उन्हें लगा कि गंभीरता से हिंदी में कविता लिखनी चाहिए, विंफतु घर में उर्दू का वातावरण था तथा हिंदी में लिखने का अभ्यास छूट चुका था। अतः बच्चन जी उनके हिंदी के पुनर्संस्कार के कारण बने। इस समय तक उनकी वुफछ रचनाएँ ‘सरस्वती’ और ‘चाँद’ में छप चुकी थीं। ‘अभ्युदय’ में छपा लेखक का एक ‘साॅनेट’ बच्चन जी को बहुत पसंद आया था। वे बताते हैं कि पंत जी और निराला जी ने उन्हें हिंदी की ओर खींचा। बच्चन जी हिंदी में लेखन-कार्य शुरू कर चुके थे। अतः लेखक को लगा कि अब उन्हें भी हिंदी-लेखन में उतरने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। बच्चन जी ने उन्हें एक स्टैंशा का प्रकार बताया था। इसके बाद उन्होंने एक कविता लिख डाली। उन्हें बच्चन की ‘निशा-निमंत्राण’ वेफ आकार ने बहुत आवृफष्ट किया। लेखक पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहे थे। इसलिए बच्चन जी को बहुत दुख था। वे बच्चन जी के साथ एक बार गोरखपुर कवि-सम्मेलन में भी गए थे।
अब लेखक की हिंदी में कविता लिखने की कोशिश सार्थक हो रही थी। ‘सरस्वती’ में छपी उनकी कविता ने निराला का ध्यान खींचा। लेखक ‘रूपाभ’ कार्यालय में प्रशिक्षण लेने के बाद बनारस के ‘हंस’ कार्यालय की ‘कहानी’ में चले गए। वे कहते हैं कि निश्चित रूप से बच्चन जी ही उन्हें हिंदी में ले आए। वैसे बाद में बच्चन जी से दूर ही रहे, क्योंकि उन्हें चिट्ठी-पत्राी तथा मिलने-जुलने में उतना विश्वास नहीं था। वैसे बच्चन जीउनके बहुत निकट रहे।
is it okkkay.....
Answer: mark as brainliest and follow me plz
Explanation: प्रस्तुत लेख ‘किस तरह आखिरकार मैं हिंदी में आया’ हिंदी के प्रसिद्ध् लेखक शमशेर बहादुर सिंह द्वारा लिखा गया है। इस लेख में लेखक ने बताया है कि पहले उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी में लिखना शुरू किया था, किंतु बाद में अंग्रेजी-उर्दू को छोड़कर हिंदी में लिखना शुरू कर दिया। उन्होंने यह भी वर्णन किया कि उन्हें अपने जीवन में क्या-क्या कष्ट झेलने पड़े। इसके साथ ही लेखक ने श्री सुमित्रानंदन पंत, डाॅ. हरिवंशराय बच्चन तथा श्री सूर्यवंफात त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रति अपनी श्रद्ध को भी व्यक्त किया है।
लेखक कहते हैं कि वे जिस स्थिति में थे, उसी स्थिति में बस पकड़कर दिल्ली चले आए। दिल्ली आकर वे पेंटिंग सीखने की इच्छा से उकील आर्ट स्वूफल पहुँचे। परीक्षा में पास होने के कारण उन्हें बिना फीस के ही वहाँ भर्ती कर लिया गया। वे करोल बाग में रहकर कनाट प्लेस पेंटिंग सीखने जाने लगे। रास्ते में आते-जाते वे कभी कविता लिखते और कभी ड्राइंग बनाते थे और अपनी ड्राइंग के तत्व खोजने के लिए वे प्रत्येक आदमी का चेहरा गौर से देखते थे। पैसे की बड़ी तंगी रहती थी। कभी-कभी उनके बड़े भाई तेश बहादुर उनके लिए कुछ रुपये भेज देते थे। वे कुछ ध्न साइनबोर्ड लिखकर कमा लेते थे। अतः अपनी टीस को व्यक्त करने के लिए वे कविताएँ और उर्दू में गशल के कुछ शेर भी लिखते थे। उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि उनकी कविताएँ कभी छपेंगी।
उनकी पत्नी टी॰बी॰ की मरीश थीं और उनका देहांत हो चुका था। अतः वे बहुत दुःखी रहते थे। इस समय महाराष्ट्र के एक पत्राकार उनके साथ रहने लगे। इसी समय एक बार क्लास खत्म होने तथा उनके चले जाने के बाद बच्चन जी स्टूडियो में आए थे और लेखक के न मिलने पर वे लेखक के लिए एक नोट छोड़ गए थे। इसके बाद लेखक ने एक अंग्रेशी का साॅनेट लिखा, किंतु बच्चन जी के पास भेजा नहीं। कुछ समय बाद लेखक देहरादून में केमिस्ट की दकुान पर कंपाउंडरी सीखने लगे। वे दुखी और उदास रहते थे। ऐसे में वह लिखा हुआ साॅनेट उन्होंने बच्चन जी को भेज दिया।
देहरादून आने पर बच्चन जी डिस्पेंसरी में आकर उनसे मिले थे। उस दिन मौसम बहुत खराब थाऔर आँधी आ जाने के कारण वे एक गिरते हुए पेड़ के नीचे आते-आते बच गए थे। वे बताते हैं कि बच्चन जी की पत्नी का देहांत हो चुका था। अतः वे भी बहुत दुखी थे। उनकी पत्नी सुख-दुख की युवा संगिनी थीं। वे बात की ध्नी, विशाल हृदय और निश्चय की पक्की थीं। लेखक बीमार रहने लगे थे, अतः बच्चन जी ने उन्हें इलाहाबाद आकर पढ़ने की सलाह दी और वे उनकी बात मानकर इलाहाबाद आ गए। बच्चन जी ने उन्हें एम॰ए॰ में प्रवेश दिला दिया क्योंकि वे चाहते थे कि लेखक काम का आदमी बन जाए क्योंकि स्वयं बच्चन जी ने अंग्रेशी में एम॰ए॰ पफाइनल करनेके बाद 10-12 साल तक नौकरी की थी, विंफतु लेखक सरकारी नौकरी नहीं करना चाहते थे। वे बताते हैं कि उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदू बोर्डिंग हाउस के काॅमन रूम में एक सीट निशुल्क मिल गई। इसके साथ ही पंत जी कीवृफपा से उन्हें इंडियन प्रेस में अनुवाद का काम भी मिल गया। अब उन्हें लगा कि गंभीरता से हिंदी में कविता लिखनी चाहिए, विंफतु घर में उर्दू का वातावरण था तथा हिंदी में लिखने का अभ्यास छूट चुका था। अतः बच्चन जी उनके हिंदी के पुनर्संस्कार के कारण बने। इस समय तक उनकी वुफछ रचनाएँ ‘सरस्वती’ और ‘चाँद’ में छप चुकी थीं। ‘अभ्युदय’ में छपा लेखक का एक ‘साॅनेट’ बच्चन जी को बहुत पसंद आया था। वे बताते हैं कि पंत जी और निराला जी ने उन्हें हिंदी की ओर खींचा। बच्चन जी हिंदी में लेखन-कार्य शुरू कर चुके थे। अतः लेखक को लगा कि अब उन्हें भी हिंदी-लेखन में उतरने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। बच्चन जी ने उन्हें एक स्टैंशा का प्रकार बताया था। इसके बाद उन्होंने एक कविता लिख डाली। उन्हें बच्चन की ‘निशा-निमंत्राण’ वेफ आकार ने बहुत आवृफष्ट किया। लेखक पढ़ाई में ध्यान नहीं दे रहे थे। इसलिए बच्चन जी को बहुत दुख था। वे बच्चन जी के साथ एक बार गोरखपुर कवि-सम्मेलन में भी गए थे।
अब लेखक की हिंदी में कविता लिखने की कोशिश सार्थक हो रही थी। ‘सरस्वती’ में छपी उनकी कविता ने निराला का ध्यान खींचा। लेखक ‘रूपाभ’ कार्यालय में प्रशिक्षण लेने के बाद बनारस के ‘हंस’ कार्यालय की ‘कहानी’ में चले गए। वे कहते हैं कि निश्चित रूप से बच्चन जी ही उन्हें हिंदी में ले आए। वैसे बाद में बच्चन जी से दूर ही रहे, क्योंकि उन्हें चिट्ठी-पत्राी तथा मिलने-जुलने में उतना विश्वास नहीं था। वैसे बच्चन जीउनके बहुत निकट रहे।