Hindi, asked by priyabujji3092, 1 year ago

Summary of manviya karuna ki divya chamak

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Answered by Radhikapatel18
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प्रस्तुत पाठ में लेखक ने फ़ादर बुल्के के जीवन का चित्रांकन किया है। फ़ादर बुल्के का जन्म बेल्जियम के रेम्सचैपल में हुआ था। वे इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ने के बाद पादरी बनने की विधिवत शिक्षा ली। भारतीय संस्कृति के प्रभाव में आकर भारत आ गए। बुल्के के पिता व्यवसायी थे, एक भाई पादरी था तथा एक परिवार के साथ रहकर काम करने वाला था। एक बहन भी थी जिसने बहुत दिन बाद शादी की। माँ की उन्हें बहुत याद आती थी, उनकी चिट्ठियां अक्सर उनके पास आती रहती थीं। उन पत्रों को वो अपने मित्र रघुवंश को हमेशा दिखाते रहते थे।
भारत में उन्होंने जिसेट संघ में दो साल तक पादरियों के बीच रहकर धर्माचार की शिक्षा प्राप्त की। 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में रहकर अध्यन कार्य किया। कोलकाता में रहते हुए बी.ए. तथा इलाहाबाद से एम.ए. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। हिंदी से उनका अत्याधिक लगाव रहा। उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950  शोध प्रबंध 'रामकथाःउत्पत्ति और विकास' लिखा। रांची में सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी तथा संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में उन्होंने काम किया। बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'ब्लू बर्ड'का रूपांतर 'नीला पंक्षी' के नाम से किया। बाइबिल का हिंदी अनुवाद किया तथा एक हिंदी-अंग्रेजी कोश भी तैयार किया। वे भारत में रहते हुए दो-चार बार ही बेल्जियम गए।

लेखक का परिचय बुल्के से इलाहबाद में हुआ जो की दिल्ली आने पर भी बना रहा। लेखक उनके महान व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे जिससे उनके पारिवारिक समबन्ध बन गए। वे एक बार रिश्ता बनाते तो तोड़ते नही, उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वे हिंदी भाषियों को ही हिंदी की उपेक्षा करने पर झुंझलाते और दुखी हो जाते। लेखक के पत्नी और बेटे की मृत्यु पर बुल्के द्वारा सांत्वना देती हुई पंक्ति ने लेखक को अनोखी शान्ति प्रदान की।
फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। अंतिम समय में उनकी दोनों हाथ की अंगुलियाँ सूज गई थीं। दिल्ली में रहकर भी लेखक को उनकी बीमारी और उपस्थिति का ज्ञान ना होने से अफ़सोस हुआ। 18 अगस्त, 1982 की सुबह दस बजे कश्मीरी गेट निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक नीली गाडी से रघुवंश जी के बेटे, परिजन राजेश्वर सिंह और कुछ पादरियों ने उतारा और अंतिम छोर पर पेड़ों की घनी छाया से ढके कब्र तक ले जाया गया। वहाँ उपस्थित लोगों में जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, डॉ निर्मला जैन, इलाहबाद के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ सत्यप्रकाश, डॉ रघुवंश, मसीही समुदाय के लोग और पादरी गण थे।फादर बुल्के के मृत शरीर को कब्र पर लिटाने के बाद रांची के फ़ादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से अंतिम संस्कार किया और सबने श्रद्धांजली अर्पित की। लेखक के अनुसार फ़ादर ने सभी को जीवन भर अमृत पिलाया, फिर भी ईश्वर ने उन्हें जहरबाद द्वारा मृत्यु देकर अन्याय किया। लेखक फ़ादर को ऐसे सघन वृक्ष की उपमा देता है जो अपनी घनी छाया, फल,फूल और गंध से सबका होने के बाद भी अलग और सर्वश्रेष्ठ था।
Answered by abdulhasimmallick200
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प्रस्तुत पाठ में लेखक ने फ़ादर बुल्के के जीवन का चित्रांकन किया है। फ़ादर बुल्के का जन्म बेल्जियम के रेम्सचैपल में हुआ था। वे इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ने के बाद पादरी बनने की विधिवत शिक्षा ली। भारतीय संस्कृति के प्रभाव में आकर भारत आ गए। बुल्के के पिता व्यवसायी थे, एक भाई पादरी था तथा एक परिवार के साथ रहकर काम करने वाला था। एक बहन भी थी जिसने बहुत दिन बाद शादी की। माँ की उन्हें बहुत याद आती थी, उनकी चिट्ठियां अक्सर उनके पास आती रहती थीं। उन पत्रों को वो अपने मित्र रघुवंश को हमेशा दिखाते रहते थे।

भारत में उन्होंने जिसेट संघ में दो साल तक पादरियों के बीच रहकर धर्माचार की शिक्षा प्राप्त की। 9-10 वर्ष दार्जिलिंग में रहकर अध्यन कार्य किया। कोलकाता में रहते हुए बी.ए. तथा इलाहाबाद से एम.ए. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। हिंदी से उनका अत्याधिक लगाव रहा। उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950  शोध प्रबंध 'रामकथाःउत्पत्ति और विकास' लिखा। रांची में सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी तथा संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में उन्होंने काम किया। बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'ब्लू बर्ड'का रूपांतर 'नीला पंक्षी' के नाम से किया। बाइबिल का हिंदी अनुवाद किया तथा एक हिंदी-अंग्रेजी कोश भी तैयार किया। वे भारत में रहते हुए दो-चार बार ही बेल्जियम गए।

लेखक का परिचय बुल्के से इलाहबाद में हुआ जो की दिल्ली आने पर भी बना रहा। लेखक उनके महान व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे जिससे उनके पारिवारिक समबन्ध बन गए। वे एक बार रिश्ता बनाते तो तोड़ते नही, उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। वे हिंदी भाषियों को ही हिंदी की उपेक्षा करने पर झुंझलाते और दुखी हो जाते। लेखक के पत्नी और बेटे की मृत्यु पर बुल्के द्वारा सांत्वना देती हुई पंक्ति ने लेखक को अनोखी शान्ति प्रदान की।

फादर बुल्के की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। अंतिम समय में उनकी दोनों हाथ की अंगुलियाँ सूज गई थीं। दिल्ली में रहकर भी लेखक को उनकी बीमारी और उपस्थिति का ज्ञान ना होने से अफ़सोस हुआ। 18 अगस्त, 1982 की सुबह दस बजे कश्मीरी गेट निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक नीली गाडी से रघुवंश जी के बेटे, परिजन राजेश्वर सिंह और कुछ पादरियों ने उतारा और अंतिम छोर पर पेड़ों की घनी छाया से ढके कब्र तक ले जाया गया। वहाँ उपस्थित लोगों में जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, डॉ निर्मला जैन, इलाहबाद के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ सत्यप्रकाश, डॉ रघुवंश, मसीही समुदाय के लोग और पादरी गण थे।फादर बुल्के के मृत शरीर को कब्र पर लिटाने के बाद रांची के फ़ादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से अंतिम संस्कार किया और सबने श्रद्धांजली अर्पित की। लेखक के अनुसार फ़ादर ने सभी को जीवन भर अमृत पिलाया, फिर भी ईश्वर ने उन्हें जहरबाद द्वारा मृत्यु देकर अन्याय किया। लेखक फ़ादर को ऐसे सघन वृक्ष की उपमा देता है जो अपनी घनी छाया, फल,फूल और गंध से सबका होने के बाद भी अलग और सर्वश्रेष्ठ था।

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