summary of pathajar ki tuti paattiyan
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इस पाठ में दो प्रसंग हैं। पहला 'गिन्नी का सोना' का है जिसमें लेखक ने हमें उन लोगों से परिचित कराया है जो इस संसार को जीने और रहने योग्य बनाए हुए हैं। दूसरा प्रसंग है 'झेन की देन' जो हमें ध्यान की उस पध्दित की याद दिलाता है जो बौद्ध दर्शन में दी हुई है जिसके कारण आज भी जापानी लोग अपनी व्यस्ततम दिनचर्या की बीच कुछ चैन के समय निकाल लेते हैं।
(1) गिन्नी का सोना
शुद्ध सोना और गिन्नी का सोना अलग होता है। गिन्नी के सोने में थोड़ा-सा ताँबा मिलाया जाता है जिससे यह ज्यादा चमकता है और शुद्ध सोने से मजबूत भी हो जाता है इस कारण औरतें अक्सर इसी के गहनें बनाती हैं। शुद्ध आदर्श भी शुद्ध सोने की तरह होता है परन्तु कुछ लोग उसमें व्यावहारिकता का थोड़ा-सा ताँबा मिलाकर चलाते हैं जिन्हें हम 'प्रैक्टिकल आइडीयालिस्ट' कहते हैं परन्तु वक़्त के साथ उनके आदर्श पीछे हटने लगते हैं और व्यावहारिक सूझबूझ ही केवल आगे आने लगती है यानी सोना पीछे रह गया और केवल ताँबा आगे रह गया।
कुछ लोग गांधीजी को 'प्रैक्टिकल आइडीयालिस्ट' कहते हैं। वे व्यावहारिकता के महत्व को जानते थे इसलिए वे अपने विलक्षण आदर्श को चला सकें वरना ये देश उनके पीछे कभी न जाता। यह बात सही है परन्तु गांधीजी कभी आदर्श को व्यावहारिकता के स्तर पर नही उतरने देते थे बल्कि वे व्यावहारिकता को आदर्शों के स्तर पर चढ़ाते थे। वे सोने में ताँबा मिलाकर नहीं बल्कि ताँबे में सोना मिलाकर उसकी कीमत बढ़ाते थे इसलिए सोना ही हमेशा आगे रहता।
(1) गिन्नी का सोना
शुद्ध सोना और गिन्नी का सोना अलग होता है। गिन्नी के सोने में थोड़ा-सा ताँबा मिलाया जाता है जिससे यह ज्यादा चमकता है और शुद्ध सोने से मजबूत भी हो जाता है इस कारण औरतें अक्सर इसी के गहनें बनाती हैं। शुद्ध आदर्श भी शुद्ध सोने की तरह होता है परन्तु कुछ लोग उसमें व्यावहारिकता का थोड़ा-सा ताँबा मिलाकर चलाते हैं जिन्हें हम 'प्रैक्टिकल आइडीयालिस्ट' कहते हैं परन्तु वक़्त के साथ उनके आदर्श पीछे हटने लगते हैं और व्यावहारिक सूझबूझ ही केवल आगे आने लगती है यानी सोना पीछे रह गया और केवल ताँबा आगे रह गया।
कुछ लोग गांधीजी को 'प्रैक्टिकल आइडीयालिस्ट' कहते हैं। वे व्यावहारिकता के महत्व को जानते थे इसलिए वे अपने विलक्षण आदर्श को चला सकें वरना ये देश उनके पीछे कभी न जाता। यह बात सही है परन्तु गांधीजी कभी आदर्श को व्यावहारिकता के स्तर पर नही उतरने देते थे बल्कि वे व्यावहारिकता को आदर्शों के स्तर पर चढ़ाते थे। वे सोने में ताँबा मिलाकर नहीं बल्कि ताँबे में सोना मिलाकर उसकी कीमत बढ़ाते थे इसलिए सोना ही हमेशा आगे रहता।
व्यवहारवादी लोग हमेशा सजग रहते हैं। हर काम लाभ-हानि का हिसाब लगाकर करते हैं वे जीवन में सफल होते हैं, दूसरों से आगे भी जाते हैं परन्तु ऊपर नहीं चढ़ पाते। खुद ऊपर चढ़ें और साथ में दूसरों को भी ऊपर ले चलें यह काम सिर्फ आदर्शवादी लोगों ने ही किया है। समाज के पास अगर शाश्वत मूल्य जैसा कुछ है तो वो इन्हीं का दिया है। व्यवहारवादी लोग तो केवल समाज को नीचे गिराने का काम किया है।
(2) झेन की देन
लेखक जापान की यात्रा पर गए हुए थे। वहाँ उन्होंने अपने एक मित्र से पूछा कि यहाँ के लोगों को कौन-सी बीमारियाँ सबसे अधिक होती हैं इसपर उनके मित्र ने जवाब दिया मानसिक। जापान के 80 फीसदी लोग मनोरोगी हैं। लेखक ने जब वजह जानना चाहा तो उनके मित्र ने बताया की जापानियों की जीवन की रफ़्तार बहुत बढ़ गयी है। लोग चलते नहीं, दौड़ते हैं। महीने का काम एक दिन में पूरा करने का प्रयास करते हैं। दिमाग में 'स्पीड' का इंजन लग जाने से हजार गुना अधिक तेजी से दौड़ने लगता है। एक क्षण ऐसा आता है जब दिमाग का तनाव बढ़ जाता है और पूरा इंजन टूट जाता है इस कारण मानसिक रोगी बढ़ गए हैं।
शाम को जापानी मित्र उन्हें 'टी-सेरेमनी' में ले गए। यह चाय पीने की विधि है जिसे चा-नो-यू कहते हैं। वह एक छः मंजिली इमारत थी जिसकी छत पर दफ़्ती की दीवारोंवाली और चटाई की ज़मीनवाली एक सुन्दर पर्णकुटी थी। बाहर बेढब-सा एक मिटटी का बरतन था जिसमे पानी भरा हुआ था जिससे उन्होंने हाथ-पाँव धोए। तौलिये से पोंछकर अंदर गए। अंदर बैठे 'चाजीन' ने उठकर उन्हें झुककर प्रणाम किया और बैठने की जगह दिखाई। उसने अँगीठी सुलगाकर उसपर चायदानी रखी। बगल के कमरे से जाकर बरतन ले आया और उसे तौलिये से साफ़ किया। वह सारी क्रियाएँ इतनी गरिमापूर्ण तरीके से कर रहा था जिससे लेखक को उसकी हर मुद्रा में सुर गूँज हों। वातावरण इतना शांत था की चाय का उबलना भी साफ़ सुनाई दे रहा था।
चाय तैयार हुई और चाजीन ने चाय को प्यालों में भरा और उसे तीनो मित्रों के सामने रख दिया। शान्ति को बनाये रखने के लिए वहाँ तीन व्यक्तियों से ज्यादा को एक साथ प्रवेश नही दिया जाता। प्याले में दो घूँट से ज्यादा चाय नहीं थी। वे लोग ओठों से प्याला लगाकर एक-एक बूँद कर डेढ़ घंटे तक पीते रहे। पहले दस-पंद्रह मिनट तक लेखक उलझन में रहे परन्तु फिर उनके दिमाग की रफ़्तार धीमी पड़ती गयी और फिर बिल्कुल बंद हो गयी। उन्हें लगा वो अनंतकाल में जी रहे हों। उन्हें सन्नाटे की भी आवाज़ सुनाई देने लगी।
अक्सर हम भूतकाल में जीते हैं या फिर भविष्य में परन्तु ये दोनों काल मिथ्या हैं। वर्तमान ही सत्य है और हमें उसी में जीना चाहिए। चाय पीते-पीते लेखक के दिमाग से दोनों काल हट गए थे। बस वर्तमान क्षण सामने था जो की अनंतकाल जितना विस्तृत था। असल जीना किसे कहते हैं लेखक को उस दिन मालूम हुआ ।