Summary of sakhi written by kabir das in hindi 0
Answers
This is for 1st para -- कबीर ने उपर्युक्त दोहे में वाणी को अत्याधिक महत्वपूर्ण बताया है। महाकवि संत कबीर दस के दोहे में कहा गया है की हमे ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए जिससे हमें शीतलता का अनुभव हो और साथ ही सुनने वालों का मन भी प्रसन्न हो उठे। मधुर वाणी से समाज में एक – दूसरे से प्रेम की भावना का संचार होता है। जबकि कटु वचनो से सामाजिक प्राणी एक – दूसरे के विरोधी बन जाते है। इसलिए हमेशा मीठा और उचित ही बोलना चाहिए, जो दुसरो को तो प्रसन्न करता ही है और खुद को भी सुख की अनुभूति कराता है।
From here 2nd para-- जिस प्रकार हिरन के नाभि में कस्तूरी रहती है परन्तु हिरन इस बात से अनजान उसकी खुसबू के कारन उसे पुरे जंगल में इधर उधर ढूंढ़ते रहती है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर की महिमा प्राप्त करने के लिए हम उसे मंदिर मस्जिद, पूजा पाठ में ढूंढ़ते हैं। जबकि ईश्वर तो स्वयं कण कण में बसे हुए हैं उन्हें कहीं ढूंढ़ने की जरुरत नहीं। बस जरूरत है तो खुद को पहचानने की।
From here 3rd para--जब तक मनुष्य में अहंकार (मैं) रहता है तब तक वह ईश्वार की भक्ति में लीन नहीं हो सकता। और एक बार जो मनुष्य ईश्वर भक्ति में पूर्ण रुप से लीन हो जाता है, उस मनुष्य के अंदर कोई अहंकार शेष नहीं रहता वह खुद को नगण्य समझता है। जिस प्रकार दीपक के जलते है पूरा अन्धकार मीट जाता है और चारों तरफ प्रकाश फ़ैल जाता है। ठीक उसी प्रकार भक्ति के मार्ग में चलने से ही मनुष्य के अंदर व्याप्त अहंकार मीट जाता है।
From here 4th para--कबीर इन पंक्तियों में समाज के ऊपर व्यंग किया है। वो कहते हैं की सारा संसार किसी झांसे में जी रहा है वो खाते हैं और सोते हैं उन्हें किसी बात की चिंता नहीं है वो सिर्फ खाने एवं सूने से ही खुस हो जाते हैं। जबकि सच्ची खुसी तो तब प्रात होती है जब आप प्रभु की आराधना में लीन हो जाते हो। परन्तु भक्ति का मार्ग इतना आसान नहीं है। इसी वजह से संत कबीर को जागना एवं रोना पड़ता है।
From here 5th para--जिस प्रकार अपने प्रेमी से बिछड़े हुए वयक्ति की पीड़ा किसी मन्त्र या दवा से ठीक नहीं हो सकती ठीक उसी प्रकार अपने प्रभु से बिछडा हुआ कोई भक्त जीने लायक नहीं रहता। उनमे कोई प्रभु भक्ति के अलावा कुछ शेष बचता ही नहीं और अपने प्रभु से बिछड़ कर वो जी नहीं सकते और अगर जीवित रह भी जाते हैं तो पागल हो जाते हैं।
From here 6th paraसंत कबीर दास जी के अनुसार जो वयक्ति हमारी निंदा करते हैं उनसे कभी दूर नहीं भागना चाहिए बल्कि हमें हमेशा उनके समीप रहना चाहिए जैसे हम किसी गाय को अपने आँगन में खुट्टा बांधकर रखते हैं ठीक उसी प्रकार ही हमें निंदा करने वाले वयक्ति को अपने पास रखने का कोई प्रबंध कर लेना चाहिए। जिससे हम रोज उनसे अपनी बुराईयों के बारे में सुन सके और उन बुराइयों को दुबारा दोहराने से बच सके। इस प्रकार हम बिना साबुन और पानी के ही खुद को निर्मल बना सकते हैं।
From here 7th para--कबीर के अनुसार मोटी मोटी किताबों को पढ़कर सिर्फ किताबी ज्ञान प्राप्त कर लेने से कोई पंडित नहीं बन सकता। जबकि ईश्वर भक्ति का एक अक्षर पढ़ कर भी लोग पंडित बन जाते हैं। अर्थात किताबी ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान भी होना आवश्यक है। नही तो कोई वयक्ति ग्यानी नहीं बन सकता।
From here 8th para--सच्चा ज्ञान प्रपात करने के लिए हमें अपने मोह माया का त्याग करना होगा। तभी हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं। कबीर के अनुसार उन्होंने खुद ही अपनी मोह माया रूपी घर को ज्ञान रूपी मसाल से जलाया है। अगर कोई उनके साथ भक्ति की राह में चलना चाहता है तो कबीर अपने इस मसाल से उसका भी घर जलाएंगे अर्थात अपने ज्ञान से उसे मोह माया के बंधन से मुक्त करेंगे।
This much only
ऐसे शब्द बोलो, अपना दिल हारो।
अपना शरीर सेट करें, और खुशी क्या है।
कस्तूरी कॉइल बसे हुए हैं, मृग पाया जाता है
यह बुरी बात है, दुनिया देखी नहीं जाती।
नहीं हरि जब मैं था, अब मैं हरि नहीं हूं।
दीपक को देखते ही सारा अंधेरा मिट गया।
सुखिया दुनिया भर में है, खाओ और पियो।
दुखी दास कबीर हैं, जागो अरु रोवै।
बिरह भुवंगम तन बसई, कोई मंत्री नहीं
राम बियोगी जिंदा नहीं है, जीवै नाराज है
भगवान निंदा करता है, एक कांटेदार बगीचे को बांधता है
बिना किसी दुःख के, निर्मल मना कर देता है।
पोथी पाढ़ी - पाढ़ी जग मुवा, पंडित भया न कोय।
एशेज, पढ़ें और सुनें
हम घर गए, खुद को मार डाला,
अब घर पर, मैं हमारे साथ हूं।