Surdas Ke brahmagiri ka udesh spasht kijiye
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याहि और नहिं कछू उपाइ।
मेरौं प्रकट कáौं नहि बदि है, ब्रज ही देऊँ पठाइ।
अन्त में उन्हें सफलता भी मिलती है। उद्धव पर गोपियों के प्रेम का प्रभाव पड़ता है। इस तरह सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग में एक विशेष उíेश्य की प्रापित की बलवती स्पृहा रही है।
हमारी दृषिट में भक्त सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का एक महत्त्वपूर्ण रहस्य है। जीव जब ब्रह्रा से वियुक्त होता है तो उससे मिलने को छटपटाता है। उस अनुभूति को अव्यक्त, गूँगे का गुड़ आदि नामों से पुकारा गया है। ब्रह्रा-वियुक्त-जीव की तड़फन का साम्य यदि कुछ हो सकता है तो अपने अतीव प्रिय के विरह से हो सकता है। सूरदास द्वारा गोपियों के अनेक मनोभावों की जो अभिव्यंजना हुर्इ है, वह एक तरह से आत्मा की परमात्मा के प्रति व्यक्त विरह-व्यथा है। यही कारण है कि वह इतनी मार्मिक है। सूर के भ्रमरगीत प्रसंग के विरहोदगारों की अनूठी मार्मिकता का यही रहस्य है। सूरदास का कवि-âदय इसमें और अधिक सहायक सिद्ध हुआ है। कवि की नूतन निर्माण क्षमता भी स्तुत्य है। राधा के समावेश से सूरदास के काव्य की रमणीयता और अधिक बढ़ गर्इ है। भागवतकार ने राèाा का नाम तक नहीं लिया, पर सूरदास ने राधा को बहुत अधिक प्रमुखता देकर प्रसंग को अधिक रसमय बना दिया है। अस्तु, सूरदास का भ्रमरगीत प्रसंग वस्तु-संयोजना की दृषिट से बहुत अधिक रोचक और कलात्मक बन गया है। उसका काव्यत्व भी उतना ही प्रशंसनीय है।
भ्रमरगीत का कथ्य
सूरदास के काव्य की उत्तमता अनुभूति पक्ष और अभिव्यकित पक्ष-दोनों पक्षों से श्लाघनीय है। अनुभूति पक्ष के अन्तर्गत हम देखते हैं कि उन्होंने भागवतपुराण के एक छोटे से और कम मार्मिक प्रसंग को विस्तृत और मर्म भरा बना दिया है। कथ्य तो केवल इतना ही है कि श्रीÑष्ण के कहने से उद्धव ब्रज आते हैं। वे गोपियों को ज्ञान-मार्ग का उपदेश देते हैं। गोपियाँ उनसे तर्क करती हैं। उद्धव उनको उपदेश देकर उनकी जिज्ञासा शान्त कर देते हैं और वे लौटकर श्रीÑष्ण के पास आ जाते हैं। सूरदास ने श्रीÑष्ण के द्वारा उद्धव के ज्ञान के गर्व को चूर करने की भावना वर्णित की है। इससे जब उद्धव के ज्ञान का गढ़ क्रम-क्रम करके ढहने लगता है तो भावक-वृन्द को वह âदयग्राही लगने लगता है। ऐसे ज्ञान के गर्वीले व्यकित को गोपियों ने जमकर फटकार सुनार्इ। ऐसा पढ़कर हमें मनस्तोष होता है। आचार्य शुक्ल के साधारणीकरण के प्रसंग में जो शीलद्रष्टा का इंगित किया है, वह यहाँ भली-भाँति चरितार्थ होता है। उद्धव के ज्ञान के उपदेश का गोपियों पर प्रभाव हो, यह पाठक नहीं चाहता। उद्धव के अपनी चतुरार्इ से प्रभावित करने के भाव में उद्धव आश्रय हैं, गोपियाँ आलम्बन और पाठक शीलद्रष्टा है। क्योंकि पाठक का उद्धव के भावों से तादात्म्य नहीं होता, अत: उद्धव ही पाठक के उपेक्षा, घृणा, क्रोध, Ðास आदि भावों का आलम्बन हो जाते हैं। पाठक की संतुषिट उस समय हो जाती है, जब गोपियाँ उद्धव को फटकारती हैं। यह भी रसानुभूति की एक अवस्था है, इसलिए सूर का भ्रमरगीत प्रसंग इतना रसमय और प्रभावपूर्ण बन गया है। उसमें पाठक को रस की उच्च भूमि पर पहुँचाने की पूर्ण क्षमता है।
सूरदास की अनुभूति एक है। वे गोपियों के माèयम से उद्धव के निगर्ुण ब्रह्रा का खण्डन करके प्रेम-मार्ग की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। गोपियां बार-बार अपनी बात कहती हैं इसलिए भ्रमरगीत प्रसंग में पुनरावृत्ति या एकरसता कुछ लोगों को लगती है, पर ऐसी बात नहीं है। यदि èयान से देखा जाए तो भ्रमरगीत प्रसंग के पदों में चाहे बात वही घुमा-फिराकर कही गर्इ हो पर अनितम पंकित में सूरदास अवश्य ही नर्इ बात कहते हैं। इसी तरह प्रत्येक पद की पहली पंकित नर्इ उठान से आरम्भ होती है। यह एकरसता वाली सिथति नहीं है बलिक वह सिथति है जो र्इख के गन्ने को खाने में होती है। एक बार छीलिए, फिर छीलिए, पर इच्छु दण्ड (गन्ना) अपना स्वाद देता ही रहता है-''छिन्नछिन्नपुनरपिपुन: स्वादुमानिच्छुदण्ड: इसी प्रकार सूर की अनुभूति का माधुर्य समझना चाहिए। कहना न होगा भकित का समावेश और उत्तम कवित्वपूर्ण अभिव्यकित-इन दोनों के योग ने सूरदास के भ्रमरगीत को काव्यानुभूति की दृषिट से प्रौढ़ता प्रदान कर दी है। इस काव्य में Üाृंगार रस का आधोपान्त प्रवाह है, इसलिए भी इसकी रसनीयता अपेक्षाÑत अधिक उत्तम प्रतीत होती है। यानी सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का कथ्य शकित-सम्पन्न है। वह ऐसी वाणी में रचित है कि सहसा रस-चुमिबनी कोटि को पहुँच गया है।
मेरौं प्रकट कáौं नहि बदि है, ब्रज ही देऊँ पठाइ।
अन्त में उन्हें सफलता भी मिलती है। उद्धव पर गोपियों के प्रेम का प्रभाव पड़ता है। इस तरह सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग में एक विशेष उíेश्य की प्रापित की बलवती स्पृहा रही है।
हमारी दृषिट में भक्त सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का एक महत्त्वपूर्ण रहस्य है। जीव जब ब्रह्रा से वियुक्त होता है तो उससे मिलने को छटपटाता है। उस अनुभूति को अव्यक्त, गूँगे का गुड़ आदि नामों से पुकारा गया है। ब्रह्रा-वियुक्त-जीव की तड़फन का साम्य यदि कुछ हो सकता है तो अपने अतीव प्रिय के विरह से हो सकता है। सूरदास द्वारा गोपियों के अनेक मनोभावों की जो अभिव्यंजना हुर्इ है, वह एक तरह से आत्मा की परमात्मा के प्रति व्यक्त विरह-व्यथा है। यही कारण है कि वह इतनी मार्मिक है। सूर के भ्रमरगीत प्रसंग के विरहोदगारों की अनूठी मार्मिकता का यही रहस्य है। सूरदास का कवि-âदय इसमें और अधिक सहायक सिद्ध हुआ है। कवि की नूतन निर्माण क्षमता भी स्तुत्य है। राधा के समावेश से सूरदास के काव्य की रमणीयता और अधिक बढ़ गर्इ है। भागवतकार ने राèाा का नाम तक नहीं लिया, पर सूरदास ने राधा को बहुत अधिक प्रमुखता देकर प्रसंग को अधिक रसमय बना दिया है। अस्तु, सूरदास का भ्रमरगीत प्रसंग वस्तु-संयोजना की दृषिट से बहुत अधिक रोचक और कलात्मक बन गया है। उसका काव्यत्व भी उतना ही प्रशंसनीय है।
भ्रमरगीत का कथ्य
सूरदास के काव्य की उत्तमता अनुभूति पक्ष और अभिव्यकित पक्ष-दोनों पक्षों से श्लाघनीय है। अनुभूति पक्ष के अन्तर्गत हम देखते हैं कि उन्होंने भागवतपुराण के एक छोटे से और कम मार्मिक प्रसंग को विस्तृत और मर्म भरा बना दिया है। कथ्य तो केवल इतना ही है कि श्रीÑष्ण के कहने से उद्धव ब्रज आते हैं। वे गोपियों को ज्ञान-मार्ग का उपदेश देते हैं। गोपियाँ उनसे तर्क करती हैं। उद्धव उनको उपदेश देकर उनकी जिज्ञासा शान्त कर देते हैं और वे लौटकर श्रीÑष्ण के पास आ जाते हैं। सूरदास ने श्रीÑष्ण के द्वारा उद्धव के ज्ञान के गर्व को चूर करने की भावना वर्णित की है। इससे जब उद्धव के ज्ञान का गढ़ क्रम-क्रम करके ढहने लगता है तो भावक-वृन्द को वह âदयग्राही लगने लगता है। ऐसे ज्ञान के गर्वीले व्यकित को गोपियों ने जमकर फटकार सुनार्इ। ऐसा पढ़कर हमें मनस्तोष होता है। आचार्य शुक्ल के साधारणीकरण के प्रसंग में जो शीलद्रष्टा का इंगित किया है, वह यहाँ भली-भाँति चरितार्थ होता है। उद्धव के ज्ञान के उपदेश का गोपियों पर प्रभाव हो, यह पाठक नहीं चाहता। उद्धव के अपनी चतुरार्इ से प्रभावित करने के भाव में उद्धव आश्रय हैं, गोपियाँ आलम्बन और पाठक शीलद्रष्टा है। क्योंकि पाठक का उद्धव के भावों से तादात्म्य नहीं होता, अत: उद्धव ही पाठक के उपेक्षा, घृणा, क्रोध, Ðास आदि भावों का आलम्बन हो जाते हैं। पाठक की संतुषिट उस समय हो जाती है, जब गोपियाँ उद्धव को फटकारती हैं। यह भी रसानुभूति की एक अवस्था है, इसलिए सूर का भ्रमरगीत प्रसंग इतना रसमय और प्रभावपूर्ण बन गया है। उसमें पाठक को रस की उच्च भूमि पर पहुँचाने की पूर्ण क्षमता है।
सूरदास की अनुभूति एक है। वे गोपियों के माèयम से उद्धव के निगर्ुण ब्रह्रा का खण्डन करके प्रेम-मार्ग की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। गोपियां बार-बार अपनी बात कहती हैं इसलिए भ्रमरगीत प्रसंग में पुनरावृत्ति या एकरसता कुछ लोगों को लगती है, पर ऐसी बात नहीं है। यदि èयान से देखा जाए तो भ्रमरगीत प्रसंग के पदों में चाहे बात वही घुमा-फिराकर कही गर्इ हो पर अनितम पंकित में सूरदास अवश्य ही नर्इ बात कहते हैं। इसी तरह प्रत्येक पद की पहली पंकित नर्इ उठान से आरम्भ होती है। यह एकरसता वाली सिथति नहीं है बलिक वह सिथति है जो र्इख के गन्ने को खाने में होती है। एक बार छीलिए, फिर छीलिए, पर इच्छु दण्ड (गन्ना) अपना स्वाद देता ही रहता है-''छिन्नछिन्नपुनरपिपुन: स्वादुमानिच्छुदण्ड: इसी प्रकार सूर की अनुभूति का माधुर्य समझना चाहिए। कहना न होगा भकित का समावेश और उत्तम कवित्वपूर्ण अभिव्यकित-इन दोनों के योग ने सूरदास के भ्रमरगीत को काव्यानुभूति की दृषिट से प्रौढ़ता प्रदान कर दी है। इस काव्य में Üाृंगार रस का आधोपान्त प्रवाह है, इसलिए भी इसकी रसनीयता अपेक्षाÑत अधिक उत्तम प्रतीत होती है। यानी सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का कथ्य शकित-सम्पन्न है। वह ऐसी वाणी में रचित है कि सहसा रस-चुमिबनी कोटि को पहुँच गया है।
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