Hindi, asked by balwinder4095, 1 year ago

surdas ke pad in class 11 antra's prasang vyakhya and vishesh​

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देवसेना का गीत छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद जी के नाटक 'स्कंदगुप्त' से लिया गया है , इसमें देवसेना की वेदना का मार्मिक चित्रण किया गया है। देवसेना जो मालवा की राजकुमारी है उसका पूरा परिवार हूणों के हमले में वीरगति को प्राप्त होता है। वह रूपवती / सुंदर थी लोग उसे तृष्णा भरी नजरों से देखते थे , लोग उससे विवाह करना चाहते थे , किंतु वह स्कंदगुप्त से प्यार करती थी , किंतु स्कंदगुप्त धन कुबेर की कन्या विजया से प्रेम करता था। जिसके कारण वह देवसेना के प्रणय - निवेदन को ठुकरा देता है। परिवार सभी सदस्यों के मारे जाने के उपरांत उसका कोई सहारा नहीं रहता , जिसके कारण वह इस जीवन में अकेली हो जाती है। जीवन - यापन के लिए जीवन की संध्या बेला में भीख मांगकर जीवनयापन करती है और अपने जीवन में व्यतीत क्षणों को याद कर कर दुखी होती है।

आह ! वेदना मिली विदाई !

मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,

मधुकरियो की भीख लुटाई।

छलछल थे संध्या के श्रमकण

आंसू - से गिरते थे प्रतिक्षण।

मेरी यात्रा पर लेती थी-

निरवता अनंत अंगड़ाई।

शब्दार्थ :

वेदना - पीड़ा। भ्रमवश - भ्रम के कारण। मधुकरियो - पके हुए अन्न। श्रमकण - मेहनत से उत्पन्न पसीना। नीरवता - खामोशी। अनंत - अंतहीन।

प्रसंग :

प्रस्तुत पंक्तियां देवसेना का गीत जो प्रसाद जी के नाटक स्कंदगुप्त का अंश है। हूणों के हमले से अपने भाई और मालवा के राजा बंधुवर्मा तथा परिवार के सभी लोगों के वीरगति पाने और अपने प्रेम स्कंधगुप्त द्वारा ठुकराया जाने से टूटी देवसेना जीवन के आखिरी मोड़ पर आकर अपने अनुभवों में अर्जित दर्द भरे क्षण का स्मरण करके यह गीत गा रही है इसी दर्द को कवि देवसेना के मुख से गा रहा है।

व्याख्या :

कवि देवसेना के मुख से अपने जीवन के अनुभव को व्यक्त करना चाह रहा है जिसमें वह छोटी छोटी बातों को भी शामिल करना चाहता है। आज मेरे दर्द को मुझसे विदाई मिल गई जिस भ्रम में रहकर मैंने जीवन भर आशाओं और कामनाओं कोई इकट्ठा किया उसे मैंने भीख में दे दिया। मेरी दर्द भरी शामें आंसू में भरी हुई और मेरा जीवन गहरे वीरान जंगल में रहा। देवसेना अपने बीते हुए जीवन पर दृष्टि डालते हुए अपने अनुभवों और पीड़ा के पलों को याद कर रही है जिसमें उसकी जिंदगी के इस मोड़ पर अर्थात जीवन की आखिरी क्षणों में वह अपने जवानी में किए गए कार्यों को याद करते हुए अपना दुख प्रकट कर रही है। अपनी जवानी में किए गए प्यार , त्याग ,तपस्या को वह गलती से किए गए कार्यों की श्रेणी में बताकर उस समय की गई अपनी नादानियों पर पछतावा कर रही है। जिसके कारण उसकी आंखों से आंसू बह निकले हैं।

Explanation:

Answered by karanbabbar
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Explanation:

खेलत में को काको गुसैयां।

हरि हारे जीते श्रीदामा बरबसहीं कत करत रिसैयां॥

जाति पांति हम तें बड़ नाहीं नाहीं बसत तुम्हारी छैयां।

अति अधिकार जनावत हम पै हैं कछु अधिक तुम्हारे गैयां॥

रुहठि करै तासों को खेलै कहै बैठि जहं तहं सब ग्वैयां।

सूरदास प्रभु कैलो चाहत दांव दियौ करि नंद-दुहैया॥

शब्दार्थ :

गुसैयां = स्वामी।

श्रीदामा = श्रीकृष्ण का एक सखा।

बरबस हीं = जबरदस्ती ही।

कत क।ह्यौं। = रिसैयां गुस्सा।

छैयां = छत्र-छायां के नीचे अधीन।

रुहठि बेमानी। = ग्वैयां सुसखा।

सूरदास के पद का भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में सूरदास जी ने खेलते वक्त श्री कृष्ण एवं ग्वाल बालको के बिच हुए वार्तालाप का वर्णन किया है। यहाँ सूरदास जी ने श्री कृष्ण के नटखट बाल रूप का वर्णन किया है।

श्री कृष्ण खेल में हार जाने के बाद भी हार को स्वीकार नहीं कर रहे हैं जैसे की एक बालक का स्वभाव होता है। इसीलिए उनके सखा अर्थात ग्वाल बालक उन्हें कहते हैं की हार गये तो बहुत बुरा लग रहा है। खेल में भी तुम्हे अपना विशेष अधिकार जमाना है।

श्रीदामा (कृष्ण के बड़े भाई) बिलकुल ठीक कहते हैं की तुम जबरदस्ती ही अपनी जीत मनवाना चाहते हो। मगर हम ऐसा होने नहीं देंगे। तुम्हे रूठना हो रूठ जा हम तुमसे डरने वाले नहीं।

खेल में ना कोई मालिक और ना कोई नौकर फिर तुम हमसे बड़े किस बात में हो तुम भी एक ग्वाले हो और हम भी ग्वाले। हम तुम्हारे आधीन तो अपना जीवन नहीं बिता रहे हैं यार फिर तम्हारे राज्य में तो नहीं रह रहे।

तुम राजा होंगे तो अपने घर में हमारे ऊपर क्यू शासन करने आये हो। नंद के राजकुमार तुम्हारे घर में कुछ गौं अधिक हैं पर इसका मतलब ये नहीं की तुम राजा बन गए और खेल में बेमानी करने लगो। तुम तो खेल में बेमानी करते हो तुम्हारे साथ भला कौन खेलेगा।

2. मुरली तऊ गुपालहिं भावति।

सुनि री सखी जदपि, नँदलालहिं नाना भाँति नचावति।

राखति एक पाइ ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति।

कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ी ह्वै आवति।

अति आधीन सुजान कनौड़े गिरिधर नार नवावति।

आपुन पौढ़ि अधर सज्जा पर, कर-पल्लव पलुटावति।

भृकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावति।

सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, धर तैं सीस डुलावति।।

शबदार्थ–

कटि = कमर।

सुजान = चतुर।

कनौड़े = क्रीतदास।

नार = गर्दन।

अधर सेज्जा = होठों की शय्या।

सन = समान।

घर तैं सीस ढुलावति = धड़ पर सिर हिलवाने लगती है। (नहीं-नहीं का संकेत करवाती है)।

सूरदास के पद का भावार्थ : इस पद में सूरदास जी ने कृष्ण के ऊपर मुरली के प्रभाव और उससे गोपियों को मुरली से होने वाली स्वाभाविक जलन का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रा प्रस्तुत किया है। सूरदास जी के पद में एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी!

मुरली श्री कृष्ण को अनेक प्रकार से नाच नचाती है फिर भी मुरली श्री कृष्ण की सबसे अधिक प्रिय है।

मुरली उन्हें एक पैर पर खड़ा करके रखती है और अपना अत्यधिक अधिकार उन पर जताती है। वह कृष्ण के कोमल तन से अपने आज्ञा का पालन करवाती है, जिससे श्री कृष्ण की कमर टेढ़ी हो आती है।

यही नहीं अत्यधिक आधीन किसी दास की तरह वह कृष्ण की गर्दन को झुकवाती है। स्वयं उनके होटो पर विराजमान होकर उनके कोमल हातों से अपने पैरों को दबवाती है। टेढ़ी भृकुटी, बाँके नेत्राों और फड़कते हुए नासिका पुटों से हम पर क्रोध करवाती हैं।

सूरदास जी ने गोपियाँ के माध्यम से अपने इस पद में कहा है की मुरली श्री कृष्ण को एक क्षण के लिए भी प्रसन्न जानकर धड़ से सिर हिलवाती हैं अर्थात नहीं, नहीं का संकेत करवाती है।

गोपियों को श्री कृष्ण सर्वाधिक प्रिय हैं, पर श्री कृष्ण को कोई और प्रिय हो। यह उनके लिए अत्यधिक असहनीय विषय है इसीलिए वे श्री कृष्ण के मुरली के प्रति चिंतित हैं और उनका ऐसा होना स्वाभाविक भी है।

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