Hindi, asked by wlama8705, 8 months ago

swami bibekanand
ke jiwan se hame kon kon se guno ko aapnna jaruri samjte hai​

Answers

Answered by suhanitanti06
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Explanation:

Swami Vivekananda Biography In Hindi

स्वामी विवेकानंद का जीवन-परिचय आपके सम्मुख प्रस्तुत करते हुए बहुत हर्ष का अनुभव हो रहा है। स्वामी जी की यह जीवनी “जगमगाते हीरे” नामक पुस्तक से ली गई है जिसके लेखक पंडित विद्याभास्कर शुक्ल हैं। हिन्दीपथ.कॉम हिंदी पाठकों के लिए स्वामी विवेकानंद का संपूर्ण साहित्य उपलब्ध कराने का यत्न पहले ही कर रहा है। इसी कड़ी में उनका जीवन परिचय भी प्रस्तुत किया जा रहा है। हमें पूरी उम्मीद है कि स्वामी विवेकानन्द का यह जीवन परिचय (Swami Vivekananda information in Hindi) सभी पाठकों के लिए प्रेरणादायी सिद्ध होगा।

महात्माओं का वास-स्थान ज्ञान है। मनुष्यों की जितनी ज्ञान-वृद्धि होती है, महात्माओं का जीवनकाल उतना ही बढ़ता जाता है। उन के जीवन काल की गणना मनुष्य शक्ति के बाहर है क्योंकि ज्ञान अनन्त है, अनन्त का पार कौन पा सकता है। महात्मा लोग एक देश में उत्पन्न होकर भी सभी देश अपने ही बना लेते हैं। सब समय उन के ही अनुकूल हो जाते हैं।

Answered by sahatrupti21
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स्वामी विवेकानंद का नाम लेते ही आँखों के सामने अध्यात्म की एक देदीप्यमान आकृति उभर आती है, जिसमें धर्म का ओज-तेज है, मानवता की सेवा का महामंत्र है, राष्ट्रीय गौरव का आभा-मंडल है और भारतीय संस्कृति का उदात्त स्वरूप है।

स्वामी विवेकानंद अपने युग की आध्यात्मिक हुंकार थे, दीन-दुखियों की सेवा के लिए एक जीवन्त पुकार थे, सत्य-धर्म की रक्षा के लिए वे एक सशक्त तलवार थे, भारत की गौरवशाली संस्कृति की नौका के वे अपने समय की पतवार थे और सबसे बढ़कर हिन्दू-धर्म के सनातन सिद्धान्तों के वे प्रबुद्ध पैरवीकार थे।

सम्पूर्ण विश्व के दार्शनिक चिन्तन का अध्येता होने के साथ-साथ वे एक ऐसे गुरु के चरणों में समर्पित  थे, जो माँ काली का अनन्य भक्त थे और मूर्ति-पूजा के माध्यम से ही अपनी आत्मा का परिष्कार कर उस चिन्मय अवस्था को प्राप्त किया था-जहाँ ईश्वर को केवल देखा ही नहीं जाता है, बल्कि उनसे बातें भी की जाती है।

स्वामी निर्वेदानन्द ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बारे में एक जगह लिखा है-‘‘स्वामी रामकृष्ण हिन्दू-धर्म की गंगा हैं जो वैयक्तिक समाधि के कमंडलु में बन्द थी तो स्वामी विवेकानंद इस गंगा के भागीरथ हैं, जिन्होंने इस देव-सरिता को रामकृष्ण के कमंडलु से निकाल कर सारे विश्व में फैला दिया।’’        

भारत में यह मान्यता है कि जब-जब धर्म का ह्रास और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब परमात्मा के दिव्य गुणों से सम्पन्न कोई महान् आत्मा इस धरा-धाम पर अवतरित होती है। भगवान् कृष्ण गीता के चतुर्थ अध्याय में इस संदर्भ में कहते हैं

इतना ही नहीं जब धर्म के नाम पर संस्थाओं में अधार्मिक लोगों का वर्चस्व बढ़ने लगता है, धार्मिक आयोजनों में दुर्जनों का सम्मान और सज्जनों का अपमान होने लगता है, धार्मिक अनुष्ठानों का उद्घाटन भी भ्रष्ट और चरित्रहीन व्यक्तियों के हाथों होने लगता है तब धर्म का सर ग्लानि से झुक जाता है। धर्म की सबसे बड़ी ग्लानि धर्म के नाम पर होने वाले अधर्म से होती है। उन्नीसवीं सदी का कालखंड धर्म की ग्लानि का पर्याय बन गया था। धर्म के नाम पर विसंगतियों का अम्बार लग गया था।

ऐसी विषम स्थिति में एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव इस धरा-धाम पर हुआ, जिसने सम्पूर्ण विश्व को धर्म के उज्ज्वल स्वरूप से परिचित कराया, धर्म की ग्लानि को धर्म के गौरव में बदल दिया। धर्म के नाम पर चलने वाली विसंगतियों को ध्वस्त करने के लिए प्राण-पण से जुट गया और अन्याय के ऊपर बम की तरह फूट गया।

बंगाल प्रान्त [आज का पश्चिम बंगाल]  के शिमुलिया मुहल्ले के गौर मोहन मुखर्जी स्ट्रीट में उस समय के अत्यन्त संभ्रान्त दत्त-परिवार में श्री राम मोहन दत्त एक नामी-गिरामी वकील के रूप में प्रतिष्ठित थे। इन्हीं के पुत्र श्री दुर्गाचरण दत्त हुए जो उर्दू, फारसी और अंग्रेजी का कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर वकालत के पेशे से जुड़ गए।

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