swatantrata prapti ke baad ke paanch aanchalik upanyason ke naam bataye
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इस युग का नाम भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर रखा गया था ।इसी युग में हिंदी में पहली उपन्यास 'परीक्षा गुरु ' लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखी गयी थी । हिंदी में भारतेंदु से पूर्व जो कथात्मक पुस्तकें लिखी गईं । वे आधुनिक उपन्यास और कहानी से मिलती-जुलती होने पर भी उनसे भिन्न थीं। वास्तव में उपन्यास और कहानी पश्चिमी साहित्य की देन है। भारतेन्दु-युग में जो उपन्यास लिखे गये, उनमें उपन्यास विद्या का उचित निर्वाह न होने के कारण उन्हें सच्चा उपन्यास नहीं कहा जा सकता है। सच तो यह है कि हिन्दी में वास्तविक उपन्यास की रचना सर्वप्रथम प्रेमचन्द ने ही की। यों, ऐतिहासिक दृष्टि से लाला श्रीनिवास दास का ‘परीक्षा-गुरु’ (1882 ई.) ही हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है। यह पश्चिमी उपन्यास की शैली पर आधारित है और यथार्थ जीवन का चित्र भी प्रस्तुत करता है, परन्तु कला की दृष्टि से बहुत अपरिपक्व है। इसमें उपदेश की प्रवृत्ति प्रधान है। ‘परीक्षा-गुरु’ के पूर्व भी ‘देवरानी-जेठानी’ (1872 ई.) ‘रीति-रत्नाकर’, ‘वामा शिक्षक’, ‘भाग्यवती’ आदि कुछ उपन्यास जैसी कथा-पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं परन्तु वे भी मुख्यतः शिक्षात्मक तथा अपरिपक्व हैं। भारतेन्दु ने भी 1866 ई. में कहानी ‘कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ लिखने का यत्न किया था और ‘चन्द्र प्रभा और पूर्ण प्रकाश शीर्षक मराठी उपन्यास का अनुवाद व संशोधन भी किया था। उनकी प्रेरणा से राधा चरण गोस्वामी, गदाधर सिंह, राधाकृष्णदास, प्रतापनारायण मिश्र आदि ने बंगला के बहुत से उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद किया और मौलिक उपन्यास भी लिखे। इन लेखकों के अतिरिक्त बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री, रामकृष्ण वर्मा आदि और भी कई लेखकों ने बंगला उपन्यासों का अनुवाद किया। अंग्रेजी से भी कुछ उपन्यासों का अनुवाद हुआ।
भारतेन्दु काल के मौलिक कथा-ग्रन्थों और उपन्यासों में महत्वपूर्ण हैं : ठाकुर जगमोहन सिंह का ‘श्याम स्वप्न’ (काव्यात्मक गद्य-कथा), पं. बालकृष्ण भट्ट रचित ‘नूतन ब्रह्मचारी’ तथा ‘सौ अजान और एक सुजान’ किशोरी लाल गोस्वामी का ‘स्वर्गीय कुसुम’, राधाचरण गोस्वामी का ‘विधवा-विपत्ति’, राधाकृष्ण दास का ‘निस्सहाय हिन्दू’, अयोध्यासिंह उपा
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