तांबे के कीड़े एकांकी व्याख्या
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ताँबे के कीड़े' में न कोई कथा है और न मंच विधान। मंच के नाम पर काला परदा और झुनझुना लिए हुए अनाउंसर स्त्री है। यह नाटक अजीब, शिथिल और गतिहीन लग सकता है। लेकिन एक बार नाटक का सूत्र हाथ में आने के बाद नाटक के अर्थ और प्रभाव से पाठक (और दर्शक) अछूता नहीं रहता।
‘तांबे के कीड़े’ एकांकी व्याख्या...
‘तांबे के कीड़े’ एकांकी एक पूर्ण कथावस्तु पर आधारित एकांकी नहीं है। इस एकांकी में चरित्रों का विकास नहीं हुआ है, ना ही उनमें पूर्णता है। पार्श्व भूमि में चरित्रों की आपसी बातचीत की एकांकी का आधार है। एकांकी में केवल एक महिला उद्घोषक ही मंच पर दिखाई देती है। नाटक की पृष्ठभूमि पार्श्व नाटक के जैसी है।
‘तांबे के कीड़े’ एकांकी दूसरे विश्वयुद्ध के समय उत्पन्न हुई विभाषिका और भय को चित्रित करता हुआ एकांकी है। इस एकांकी के माध्यम से विज्ञान और उसके विनाशक अविष्कारों के बारे में बताया गया है और यह चिंता व्यक्त की गई है कि इन विनाशक हथियारों से मानव का अस्तित्व संकट में आ गया है। भौतिक सुख सुख साधनों की लोग ने मानव को स्वार्थी बना दिया है। वह अपने लक्ष्य से भटक कर अपने विनाश के रास्ते पर चल पड़ा है। इस झांकी के माध्यम से लेखक ने यही बात सिद्ध करने की प्रयास किया है।
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तांबे के कीड़े’ एकांकी की रचना भुवनेश्वर ने 1946 में की थी। ‘तांबे के कीड़े’ एकांकी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लिखा गया था। दितीय विश्व युद्ध 1945 तक समाप्त हो गया था, जबकि ‘तांबे के कीड़े’ एकांकी की रचना 1946 में में भुवनेश्वर की गई थी।
भुवनेश्वर हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध एकांकीकार थे। उनका पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव था। उनका जन्म 1911 में तथा मृत्यु 1957 में हुई। उनके द्वारा लिखित तांबे के कीड़े उपन्यास को विश्व की किसी भी भाषा में लिखे गए पहले असंगत नाटक का सम्मान प्राप्त है।