टॅगौर और गाँधी, दोनों किस प्रकार एक दूसरे
के पूरक थे
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महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर अपने समय की दो महान आत्माएँ थीं। एक ही समय में इस प्रकार के व्यक्तित्व अपनी अपनी तरह से अलग क्षेत्रों में काम करते हुए एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े होंगे, यह कल्पनातीत विश्वास उनके पत्रों को पढ़कर दृढ़ होता है। साहित्य और कला क्षेत्रों के साथ राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले दो व्यक्तित्व प्रायः इस प्रकार की चिंताएँ नहीं करते बल्कि एक दूसरे के प्रति राग-द्वेष से लबरेज ही रहते हैं। दक्षिण अफ्रीका में रहते गांधीजी यह जानते थे कि रवींद्रनाथ टैगोर शांतिनिकेतन के माध्यम से बड़ा काम कर रहे हैं और टैगोर इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे कि दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी जिस प्रकार का आंदोलन चला रहे हैं वह दुनिया में अपनी तरह का एक अलग आंदोलन है, जिसकी ताप भारत में भी महसूस की जाने लगी थी। जनवरी, 1915 में भारत आते समय गांधीजी ने फीनिक्स आश्रम में रहकर पढ़ने वाले छात्रों को शांतिनिकेतन भेजना ही उचित समझा था। गांधीजी का चयन बताता है कि टैगोर के प्रति उनके मन में कितनी श्रद्धा थी और उनके काम के प्रति कितना विश्वास था। इसीलिए टैगोर ने उन्हें पत्र लिखकर धन्यवाद दिया कि 'अपने छात्रों को साथ ही साथ हमारे छात्र बनाने की अनुमति के लिए ।' यह संक्षिप्त-सा पत्र एक दूसरे की भावनाओं को प्रगट करता है। गांधीजी लगभग 22 वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहे, उन्होंने वहाँ दो आश्रमों की स्थापना की-फीनिक्स और टालस्टाय आश्रम। इधर अपने पिता की साधना स्थली को देश के सर्वथा अलग प्रकार के विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तित करने का बीड़ा रवींद्रनाथ
टैगोर ने उठाया। एक दार्शनिक और प्रकृति प्रेमी कवि तथा
दूसरा शांति और अहिंसा का पुजारी लेकिन चिंताएँ समान। उन चिंताओं को दूर करने के साधन और मार्ग अलग-अलग थे लेकिन दोनों को यह विश्वास था कि एक जगह जाकर दोनों मिल जाएँगे। गांधी अपनी तरह से आजादी की लड़ाई लड़ने दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे। वहाँ रहकर उन्होंने जो प्रयोग किए थे, उन प्रयोगों को वे भारतीय राजनीति में इस्तेमाल करना चाहते थे। इतिहास में यह पहला अवसर था जब अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से शासक वर्ग को परास्त करना था। गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की नीतियों से हममें से बहुतों की सहमति नहीं है, हम यह भी नहीं मानते कि केवल गांधी के कारण देश को स्वाधीनता मिली थी लेकिन यह तो मानते ही हैं कि उन्होंने बिना किसी डर, प्रलोभन और निजी महत्वाकांक्षा के स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी। विरोधी आरोप लगाते रहे लेकिन वे अकेले पड़कर भी अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे। उनके इस अनोखे सिद्धांत ने उस समय भी कई लोगों का मन मोहा था और आज भी वह अविश्वसनीय लगता है। रवींद्रनाथ टैगोर भी उनमें से एक थे, जो गांधीजी की कई नीतियों से असहमत होते हुए भी उन्हें महात्मा मानते थे और विश्वास भी करते थे। गांधी और टैगोर के पत्र और हंगरी लेखिका रोजा हजनोशी गेरमानूस की संस्मरणात्मक पुस्तक 'अग्निपर्व शांतिनिकेतन' से यह बात स्पष्ट होती है। रोजा 1929 से 1931 तक अपने पति इस्लामी इतिहास के प्राध्यापक ज्यूला गेरमानूस के साथ शांतिनिकेतन में रहीं थीं । तीस के दशक के बनते हुए शांतिनिकेतन को रोजा की आँखों से देखना एकअकल्पनीय लेकिन अद्भुत ज्ञान के तीर्थ से परिचय कराता है। रवींद्रनाथ टैगोर के भव्य व्यक्तित्व के कारण देश- विदेश से आने वाले विद्वानों का जमावड़ा शांतिनिकेतन में रहता था। यह पुस्तक केवल निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि शांतिनिकेतन की पूरी रीति-नीति तथा कविगुरु की आभा का जीता जागता प्रमाण चाक्षुष करती है। कविगुरु ने इसे अपने सपनों के विश्वविद्यालय के रूप में बनाने की ठानी थी। इसीलिए पूरा शांतिनिकेतन कवि के सपनों, उनकी महत्वाकांक्षाओं और उनकी कल्पनाओं पर संचालित होता था। रोजा ने बहुत ही कौशल के साथ शब्द-चित्र बनाए हैं। गांधीजी ने भारत आते समय फीनिक्स के छात्रों को इसीलिए शांतिनिकेतन भेजा था और इसीलिए आर्थिक संकट के दौर में टैगोर अकेले गांधीजी पर ही भरोसा करते थे । शांतिनिकेतन के विकास के साथ आर्थिक संकट भी उसी तेजी से बढ़ रहा था जिसका कोई समाधान टैगोर के पास नहीं था। देश-विदेश के भ्रमण इत्यादि से उन्हें जो भी आय होती थी वह सब शांतिनिकेतन के लिए पर्याप्त नहीं थी। दुखी मन गुरुदेव ने गांधीजी को पत्र लिखकर अपनी चिंता से अवगत कराया 'अपने जीवन के इस प्रयोजन के लिए तीस वर्षों से वास्तव में मैंने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है और जब तक मैं अपेक्षाकृत जवान और सक्रिय था मैं बिना किसी की सहायता के अपनी सारी मुसीबतें झेलता रहा और मेरे संघर्षों के दौरान यह संस्था अनेक रूपों में कई गुना संबर्धित हुई।