ताजमहल को मूगल वास्तुकला का अच्छा नमूना क्यों माना जाता है?
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ताज महल का इतिहास
ताज महल का इतिहास दुनिया की सबसे महान प्रेम कहानियों में से एक है। यह सन् 1607 में शुरु हुई थी जब मुगल राजकुमार खुर्रम जिन्हें बाद में मुगल सम्राट शाहजहां के नाम से जाना गया, ने पहली बार खूबसूरत अर्जुमंद बानो बेगम को देखा। महारानी मेहरुन्निसा जिन्हें बाद में नूरजहां के नाम से जाना गया, अर्जुमंद उनकी भतीजी थी। जहांगीर के बेटे ने अर्जुमंद से निकाह करने की ख्वाहिश ज़ाहिर की और कुछ सालों के बाद बड़ी धूमधाम से उनकी शादी हुई।
खुर्रम यानि शाहजहां का संक्षिप्त इतिहास
खुर्रम 1592-1666 सम्राट जहांगीर के तीसरे बेटे थे और मारवाड़ के शाही परिवार की राजकुमारी मनमती से पैदा हुए थे। ऐसे समय में जब उनके माता पिता की तरह की शादी एक तरह से राज्य नीति होती थी और दो राजवंशों के बीच किसी समझौते का तय करने जैसा होता था, ऐसे में खुर्रम और अर्जुमंद की मोहब्बत की दास्तान बहुत अनूठी है। खुर्रम अपने दादा मुगल बादशाह अकबर के लाड़ले थे और अपने भाइयों के साथ वैसे ही बड़े हुए जैसे एक मुगल राजकुमार को होना चाहिए था। मुगल दरबार में हर ओर साजिशें थी और खुर्रम के सबसे बड़े भाई राजकुमार खुसरो ने सन् 1606 में अपने पिता जहांगीर के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को कुचल दिया गया और राजकुमार खुसरो को अंधा कर दिया गया। खुर्रम इस विद्रोह से दूर रहे और उनकी वफादारी के इनाम के तौर पर उन्हें 15 साल की उम्र में जहांगीर का वारिस घोषित किया गया। उसी साल उनकी मुलाकात और मोहब्बत अर्जुमंद से हुई जो तब सिर्फ 14 साल की थी।
मुमताज महल का संक्षिप्त इतिहास
अर्जुमंद बानो बेगम महारानी नूरजहां के बड़े भाई असफ खान की बेटी थी। वह एक रईस फारसी व्यक्ति मिर्ज़ा गियास बेग़ की पोती थी जो बाद में मुगल दरबार में खजांची और इतिमाद-उद-दौला बने। खुर्रम और अर्जुमंद की मुलाकात महल की चारदीवारों के बीच बने मीना बाज़ार में हुई थी। मीना बाज़ार में जहांगीर की रानियां और दरबार की अन्य अमीर औरतें उन सामानों का बेचती थीं जो दरबारियों की खरीद के लिए बनवाया जाता था।
अर्जुमंद भी ऐसी ही एक दुकान पर थी जहां उन्होंने हाथों से रंगे कुछ मिट्टी के बर्तन बेचने के लिए रखे थे। कहानी यह है कि खुर्रम इतने दीवाने हो गए थे कि उन्होंने सोने के एक सिक्के से उस दुकान का सारा सामान खरीद लिया था। उन दोंनों की उम्र कम होने के कारण सन् 1612 में निकाह से पहले पांच सालों के लिए उनकी सगाई की गई। निकाह के बाद अर्जुमंद को 'मुमताज महल बेगम' का खि़ताब दिया गया।