तौ जन्नी! जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वैहौ?
क्यों हौं आजु होत सुचि सपथनि? कौन मानिहै साँची?
महिमा-मृगी कौन सुकृती की खल-बच-बिसिखन बाँची?
गहि न जाति रसना काहू की, कहौ जाहि जोइ सूझै।
दीनबंधु कारुन्य-सिंधु बिनु कौन हिए की बूझै ?
तुलसी रामबियोग-बिषम-बिष-बिकल नारिनर भारी।
भरत-स्नेह-सुधा सींचे सब भए तेहि समय सुखारी॥ १॥
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जो पै हौं भावु मते है हौं। तो जननी! जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वैहो ॥ राम का रूप निहारति जानकि, कंकन के नग की पहरहाही।
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