तुलसी के काव्य में समन्वयवाद कि विवेचना कीजिए
Answers
Answer:
गोस्वामी तुलसीदास अनन्य रामभक्त होने के साथ ही साथ लोककल्याणकारी भावना से ओतप्रोत कवि भी थे। अत : उन्होने धर्म और मुक्ति की प्राप्ति के साधन रूप श्री राम की भक्ति की जो निर्मल अजस्र धारा प्रवाहित की वह नितांत रूप से लोकमंगलकारी सिद्ध हुई। गोस्वमी तुलसीदास की धारणा थी कि -
“ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामय : ।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित दु:ख भागभवेत ।। “
अर्थात सभी सुखी रहें ,सभी सांसारिक माया मोह से दूर रहें, सभी सतकल्याणमय कार्यों के अभिलाषी रहें और किसी को कभी कोई दुख न हो। इसे गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के आरंभ में ही पूर्णत : स्पष्ट कर दिया है कि –
“ मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
इसे इन्होंने मानस के अंत में और भी स्पष्ट कर दिया है कि -
“कलि मलि हरनि विषय रस फीकी।
सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की।।
दलनि रोग भव मूरि अमी की।
तात मात सब विधि तुलसी की।। “
इस प्रकार श्री राम की कथा कलियुग के पापों को नष्ट करने वाली और समाज का कल्याण करने वाली है क्योंकि इस कथा में सर्वत्र विषय रस अर्थात सांसारिक भोगों की प्रचुरता का फीकापन ही व्याप्त है। भाव यह है कि इस कथा में कहीं भी भौतिक भोगों काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,अहंकार की बात नहीं कही गई है। श्री राम की कथा वह संजीवनी है जो शरीरस्थ और मनस्थ सभी प्रकार के रोगों को दूर कर देती है। जिसे लोग मधुर के स्थान पर कटु समझ कर त्याग देते हैं। परंतु जब मनुष्य अंधकार, क्लेश, हताशा ,निराशा ,अस्थिरता में डूब जाता है ,ऐसे समय में रामकथा ही एकमात्र ऐसा रामबाण है जो प्राणिमात्र को इन विषम परिस्थितियों से उबार कर नयी प्राणशक्ति का संचार कर रसाबोर कर देती है। इसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, समरसता, समन्वय, मुक्ति, सदाचार जैसे उद्दात्त तत्व पूर्ण रूप में विद्यमान हैं।
मानस की कथा को तुलसी ने कलियुग के पापों को नष्ट करने वाली, लोक और परलोक में सुख देने वाली ,विषय विकारों को नष्ट करने वाली और अज्ञान के अंधकार को दूर करने तथा उसमें उद्दात्त मानवीय तत्वों का समावेश करके ‘वसुधैव कुटुंबकम,’ ‘आत्मवतसर्वभूतेषु’,’ ‘बहुजनहिताय बहुजनरताय ,’ तथा ‘सर्वभूतहितरेता,’ के रूप में प्रस्तुत करके पूर्णतया लोकमंगलकारी बना दिया। इसका मूल रस शांत है। इसकी बुनियाद सदाचार, त्याग, तप संतोष, सदाचार, परोपकार जैसे सुदृढ़ साधना के ऐसे सोपान हैं जिन पर चढ़कर मनुष्य इस मायामय सागर से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। रामचरितमानस का मूल उद्देश्य सत और असत को तथा उनके सद परिणामों को दिखाकर जीवन के प्रति आस्था तथा लोक और परलोक में सुख –प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करना है। ‘( रामचरितमानस में सांस्कृतिक चेतना ,दो शब्द)। तुलसी के अनुसार मनुष्य लोभ मोहादि जैसे विकारों में लीन रहकर अपने जीवन को व्यर्थ ही गवां देता है।
तुलसी ने यह स्पष्ट रूप से माना है कि बिना सदाचार के भक्ति कि धारणा आडंबर है। उनके समय में धर्म में आडंबर बहुत अधिक होने लगा था। कबीर ने भी भक्ति कि आड़ में दिखावा करने वालों पर तीखा प्रहार किया है।
“माला तो कर में फिरै ,जीभ फिरे मुख माहीं ।
मनुआ तो चहूँ दिसि फिरै ,यह तो सुमिरन नाहिं ।। “
गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रवृत्ति को भली प्रकार से समझा था। इसीलिए उन्होंने ईश्वराधना में सदाचार का अमर बन्ध लगा दिया जिससे कि भक्त का मन डांवांडोल न हो सके और आडंबरों एवं दिखावे से दूर रहकर सच्ची भक्ति करने मे सक्षम हो।
“ हम लखि हमार लखि ,हम हमार के बीच ।।
तुलसी अलखहि का लखै, राम नाम जपु नीच ।। “
अर्थात माया के बंधन में बंधकर और माया के भोगों को भोगते हुए तू अलख को कैसे देखेगा । इसलिए अरे नीच राम नाम का जाप कर ताकि तू माया के बंधन से मुक्त होकर अलख को देख सके । उन्होंने हर ढोंगी व्यक्ति को यह उपदेश दिया है कि –
“राम नाम के आलसी ,भोजन के होशियार ।
तुलसी ऐसे नरन को बार बार धिक्कार ।
राम नाम लीयो नहीं ,कियौ न हरि ते हेत ।
वे नर यौं ही जाएंगे ,जौं मूरी को खेत ।। “
अत : -
जागते रहो छत्तीस ह्वै राम चरण छ्ह तीन ।
तुलसी देख बिचार जिय ,है यह मतौ प्रवीण ।
राम नाम तौ अंक है सब साधन है सून ।
अंक गए कछु मान नहिं अंक रहे दस गून ।। “
इसका तात्पर्य यह है कि संसार (माया ) से ३६ कि तरह पीठ फेर कर रहो और भगवान के चरणों में ६३ की तरह सदा सामने रहो । यहि जीवन का मूल मंत्र है।
“जौ लगि घट में प्राण।
कबहुंक दीन दयाल के भनक परैगी कान। “
इस प्रकार तुलसी ने लोक कल्याण का ऐसा सहज मार्ग बताया है जिसमें धन ,बुद्धि ,वैभव की आवश्यकता नहीं है। राम नाम का जाप ,सदाचार पालन और राम कथा का निरंतर पारायण ,इस त्रिगुणात्मक भक्ति पथ पर चलकर मनुष्य का अवश्य ही मंगल होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने जिस नवधा भक्ति का उपदेश श्री राम द्वारा शबरी को दिलवाया है उसमें भी सर्वत्र आचरण की व्यावृति है। तुलसी की भक्ति दिखावे से मुक्त है। -
“प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।।
चौथी भगति मम गुन गन,करइ कपट तजि गान
गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी भक्ति में सत्संग पर भारी बल देते हुए इसे रामभक्ति और लोक मंगल का प्रथम चरण माना है । इसी से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान से वैराग्य उत्पन्न होता है। तभी मन भक्ति में लगता है और भगवान के चरणों मे मन लगाए बिना न लोक मंगल होता है न ही भक्ति प्राप्त होती है।गुरु के चरणों की सेवा ,बड़ों का सम्मान ,आज्ञा पालन ,छल कपट रहित ,राम नाम का जाप ,त्याग , तप ,संतोष ,परोपकार
तुलसी के काव्य में निहित भगवान श्री राम का चरित ,भक्ति भावना ,धर्म निरूपण ,दर्शन ,जीवन दर्शन तथा नीति आदि के हर पृष्ठ पर ऐसे सुंदर पुष्प विद्यमान हैं जिनसे निरंतर लोकमंगल की मनोहारी सुगंध निकलती रहती ह