Hindi, asked by nehal12399, 7 months ago

तुलसीदास samnwayविराट चेस्ट के कवि हैं​

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Answered by bishtvineeta34
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हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग के एक महान भक्त, प्रबुद्ध कवि एवं तत्व दृष्टा दार्शनिक महाकवि तुलसीदास ने अपने साहित्य के माध्यम से समन्वय की जो विराट साधना की है वो आज तक भारतीय जनमानस को प्रभावित किए हुए है। इसका कारण एक ओर उनकी सुन्दर काव्यशक्ति है तो दूसरी ओर उनके काव्य का धार्मिक स्वरूप भी है। इनका काव्य एक कवि की प्रेरणा ही नहीं बल्कि एक गहरे अध्ययन व चिंतन का वह जागरूक स्वरूप है जिसे कवि ने सोच-समझकर प्रस्तुत किया है और इसीलिए इनका समन्वय प्रयास इनकी लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण बन गया जिसका समर्थन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने करते हुए कहा है कि तुलसीदास के काव्य की सफलता का एक और रहस्य उनकी अपूर्व समन्वय शक्ति में है।

तुलसीदास का व्यक्तित्व ही अनेक विरोधाभासों का समुच्च्य रहा है। आर्थिक विपन्नता के कारण इन्हें दर-दर भटकना पडा तो लक्ष्मी ने इनकी चरण वन्दना भी की। समाज ने इनको अपमानित भी किया और सर्वोच्च सम्मान भी दिया। ये रति-रंग में आकंठ मग्न भी हुए और परम वियोगी संत भी। कहने का तात्पर्य यह है कि ये सच्चे अर्थों में संत थे। ऐसे संत जिसने भौतिक वैभव की क्षणभंगुरता को पहचान लिया हो तथा आत्म-साक्षत्कार के उस सोपान पर पहुँच गया हो जहाँ मोहाकर्षण निरर्थक हो जाते हैं। इनकी दृष्टि में साम्प्रदायिक या भाषागत विवाद महत्वहीन अथवा पाखंडी मस्तिष्क की उपज थे और इसीलिए उन्होंने सदैव समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया।

‘समन्वय’ शब्द के सन्दर्भानुसार कई अर्थ हैं। व्यापक रूप में इसका अर्थ पारस्परिक संबंधों के निर्वाह से लगाया जाता है लेकिन इसका एक विशिष्ट अर्थ में भी प्रयोग होता है और वह है- ‘विरोधी प्रतीत होने वाली वस्तुओं, बातों या विचारांे के विरोध को दूर करके उनमें सामंजस्य बिठाना।’ तुलसी ने जिस समय साहित्य में प्रवेश किया उस समय के समाज, धर्म, राजनीति, भक्ति, साहित्य तथा लोगों के जीवन में अनेक परिस्थितियाँ परस्पर एक दूसरे के विरोध में खडे होकर जनमानस के जीवन को कठिन बना रही थीं। धर्म के क्षेत्र में शैव, वैष्णव व शाक्तों के रूप में विभिन्न सम्प्रदाय दिन-प्रतिदिन कट्टरता की ओर बढ रहे थे। सगुणोपासक जहाँ निर्गुण मार्ग को नीरस बताकर उसकी निन्दा कर रहे थे तो निर्गुणपंथी भी सगुण भक्ति का विरोध कर रहे थे। जनता ज्ञान, कर्म और भक्ति के बीच चुनाव को लेकर असमंजस में थी। सभी वैष्णव आचार्य शंकर के निर्गुण ब्रह्मवाद और माया के विरोधी थे तो सभी अद्वैतवादी मध्वाचार्य के द्वैतवाद के विपक्षी हो गए थे। राजा और प्रजा, वेदशास्त्र और व्यवहार के बीच का फासला निरन्तर बढता जा रहा था। पारिवारिक संबंधों में और वर्णाश्रमधर्म में वैषम्य फैल रहा था। ऐसे समय में सभी साहित्यिक विद्वान अपने अपने स्तर पर इन परिस्थितियों से जूझने का प्रयास कर रहे थे। जायसी ने फारसी मसनबी शैली में भारतीय प्रेम व लोक कथाओं को पिरोकर प्रेम का संदेश दिया तो कबीर ने भी हिन्दु-मुसलमान, उच्च-निम्न, अमीर-गरीब आदि भेदों का विरोध कर समाज में सामंजस्य बिठाने का प्रयास किया। परन्तु इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण व सराहनीय कार्य यदि किसी ने किया है तो वह गोस्वामी तुलसीदास ने। इन्होंने इन सभी विरोधों को बहुत अंशों में दूर कर अपनी समन्वयवादी दृष्टि का परिचय दिया और अपना एक निश्चित दार्शनिक मत स्थापित किया जो मुख्यतः रामचरितमानस और विनयपत्रिका में दृष्टिगत होता है। इसीलिए आचार्य द्विवेदी ने उनको बुद्ध के बाद सबसे बडा लोकनायक सिद्ध करते हुए कहा है- ‘‘लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके।‐‐‐‐तुलसीदास महात्मा बुद्ध के बाद भारत के सबसे बडे लोकनायक थे।’’1

भक्तिकाल में ब्रह्म के सगुण व निर्गुण स्वरूप को लेकर जो विवाद चला उसपर भारतीय दर्शन में बहुत गम्भीर चिन्तन-मनन हुआ है। शंकराचार्य के अनुसार तत्व केवल एक है-‘ब्रह्म’। ये ब्रह्म को स्वरूपतः निर्गुण व निराकार मानते हैं जबकि वल्लभाचार्य ने सगुण ब्रह्म को पारमार्थिक सत्य माना है लेकिन तुलसीदास के अनुसार राम के दोनों रूप- निर्गुण और सगुण परमार्थतः सत्य हैं-

‘‘अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा।

अकथ अगाथ अनादि अनूपा।।’’2

तुलसीदास के अनुसार निर्गुण और सगुण में कोई तात्विक भेद नहीं है, केवल वेश का अन्तर है। दोनों स्वरूपों की अभेदता को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने दृष्टान्त भी दिया है-

‘‘

‘‘

Answered by aditya5146508
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Answer:

समन्वय की विराट चैता तूलसीदास जी के रामचरित्रमानस के अंत में मिलती है।

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