तुम परदे का महल ही नहीं जानते, हम परदे
पर कुबान हो रहे हैं। इस पंक्ति में निहित
व्यंग्य की स्पष्ट कीजिर-
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लोगों की बुराइयों को छिपाने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया गया है। लोग अपनी बुराइयों को दूसरों के सामने नहीं आने देना चाहते हैं। परंतु प्रेमचंद ने कभी अपनी बुराइयों को दूसरोंसे छिपाने का प्रयास नहीं किया। वे जैसे थे वैसे ही दिखाई देना पसंद करते थे ।
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