टेन लाइंस ऑन स्वामी विरजानंद
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1. हिन्दू समाज को अनेको कुप्रथाओं और कुरीतियों के दलदल से उबारने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के मोरवी नामक गाँव में हुआ था।
2. स्वामी दयानंद सरस्वती जी का नाम मूलशंकर रखा गया था उनकी माता का नाम अमृतबाई और पिता का नाम अम्बा शंकर था जोकि एक कट्टर शिवभक्त थे।
3. उनके पिताजी एक जमींदार तथा समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे इसलिए उनका बचपन बहुत ही सुख-समृद्धि में बीता था।
4. दयानंद सरस्वती जी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी तथा वह इतने कुशाग्र बुद्धि थे कि 14 वर्ष की आयु में ही उन्होने सामवेद यजुर्वेद तथा संस्कृत व्याकरण का सम्पूर्ण अध्ययन कर डाला था।
5. 1846 में चाचा की मृत्यु से वह विरक्त हो गए औऱ जब पिता उनका विवाह कराना चाहते थे वह घर छोड़ कर चले गए और सत्य की खोज में इधर-उधर भटकने लगे।
6. वह अनेक साधु महात्माओं से मिले फिर एक दिन वह मथुरा में स्वामी विरजानंद जी से मिले और उन्हें गुरु मानकर वेदों व धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने लगे।
7. गुरुदक्षिणा के रूप में स्वामी विरजानंद ने यह प्रण लिया कि वह सदैव वेद-वेदांत आदि का प्रचार-प्रसार करके अज्ञान रूपी अन्धेरे को समाज से मिटायेंगे और स्वामी दयानंद जी ने अंत तक इस प्रण को निभाया।
8. 1857 की क्रांति में स्वामी दयानंद जी का अभूतपूर्व योगदान रहा औऱ सर्वप्रथम स्वराज्य का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया।
9. स्वामी दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की जिसनें भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा बाल विवाह, सती प्रथा जैसी अनेको कुरीतियों के विरुद्ध कदम उठाए।
10. 62 वर्ष की आयु में स्वामी जी को धोखे से विष पिला दिया गया था मगर इस महान आत्मा ने विष देने वाले व्यक्ति को भी हृदय से माफ कर दिया। भले ही आज वह जीवित नही है पर हमारी स्मृतियों में वह सदा अमर रहेंगे।
Answer:
स्वामी विरजानन्द(1778-1868), एक संस्कृत विद्वान, वैदिक गुरु और आर्य समाज संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरु थे। इनको मथुरा के अंधे गुरु के नाम से भी जाना जाता था।
इनका जन्म मोह्याल दत्त परिवार में पंजाब के करतारपुर में 1778 इस्वी में हुआ। इनका बचपन का नाम - वृज लाल था। पाँच साल की उम्र में चेचक के कारण ये पूर्ण अंधे हो गए। 12वें साल में माँ-बाप चल बसे और भाई-भाभी के संरक्षण में कुछ दिन गुजारने के बाद ये घर से विद्याध्ययन के लिए निकल पड़े। कुछ काल तक इधर भटकने के उपरांत ये आध्यात्मिक नगरी के रूप में विख्यात ऋषिकेश आए और कुछ काल ऋषिकेश में रहने के बाद किसी की प्रेरणा से ये हरिद्वार किसी आश्रम में रहने लगे। वहाँ ये स्वामी पूर्णानन्द से मिले। पूर्णानन्द ने इन्हें वैदिक व्याकरण और आर्ष शास्त्रों से अवगत कराया।