History, asked by vedantwalkhade2224, 4 months ago

टीपा लिहा जनासाठीचा इतिहास​

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Answered by manas7083
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Explanation:

कबीर की उलटबांसी क्या है?

कबीर अपने जमाने के प्रसिद्ध ख्याति प्राप्त संत थे। इनके लिखे हुए दोहे सर्वविदित हैं।

पर हम यहाँ कबीर की "उलटबांसी" की बात कर रहे हैं। उलटबांसी का मतलब लिखे हुए तथ्यों के गूढ़ मतलब को समझना है।

कबीर द्वारा लिखी गयी कुछ प्रचलित उलटबांसियाँ हैं, जो काफी अचरज भरी हैं।

"उसको पढ़ने सुनने से उनके पीछे लगे रहस्यवाद को जानने की जिज्ञासा होती है। पर वह इतना सरल नहीं है। आन्तरिक ढाँचे की बनावट और नाथ सम्प्रदाय से संबंधित हठयोग का जिन्हें ज्ञान है,वे ही इसका अर्थ समझ सकते हैं।

उदाहरण के तौर पर कबीर की लिखी गयी एक उलटबांसी का यहाँ जिक्र कर रही हूँ, जो काफी आकर्षक और रहस्यमय है। इसके शब्दार्थ व्यंग्य भरे और सारगर्भित हैं। यह देखने योग्य है।

देखि देखि जिय अचरज होई,यह पद बूझें बिरला कोई।।

धरती उलटा अकासै जाय, चिउंटी के मुख हस्ति समाय।

बिना पवन सो पर्वत उड़े,जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े।

सूखे सरवर उठे हिलोरा, बिनु जल तक वा करत किलोरा।

बैठा पंडित पढ़े कुरान, बिन देखे का करत बखान।

कहहि कबीर यह पद को जान, सोई सन्त सदा परबान ।।

कबीर का कहना है कि इस रहस्य को कोई बिरले ही बूझ सकता है।

उपर लिखी हुई उलटबांसी का अर्थ यह निकलता है।

धरती ने उलट कर आकाश को खा लिया।

चींटी के मुंह में हाथी चला गया।

बिना पवन के पर्वत उड़ने लगे।

सारे जीव जन्तु इस समय वृक्षों पर चढ़ गए।

सूखे सरोवर में जल की हिलोरें उठने लगे।

पानी नहीं था तो भी चकवा कलोल करने लगा।

पंडित कुरान पढ़ रहे थे और उसका बखान कर कर रहे थे,जो देखा ही नहीं।

कबीर कहते हैं कि जो इस कथन का रहस्य जानता है,उसी की बात सदा प्रामाणिक मानी जाएगी ।

इस उलटबांसी में योगी की अंतरंग और बहिरंग स्थिति का वर्णन है। गीता में कहा गया है कि जब संसार जागता है तो योगी सोता है और जब योगी सोता है,तब संसार जागता है। अर्थात संसारी और मायामुक्त योगी की स्थिति एक दूसरे से सर्वथा उलटी होती है।

जो मोह में फंसे हैं वो उसी मे हर समय तल्लीन रहते हैं। उनकी मनोवृतियाँ - प्रवृतियाँ भी ठीक उल्टी चलती हैं।

उपरोक्त पद में इसी तथ्य का दर्शन कराया गया है।

संसार की उल्टी स्थिति का जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है,पर उसका कारण और रहस्य कोई बिरला ही जान पाता है।

कबीर का कहना है कि जो तत्व और ज्ञान से अवगत है, प्रमाणिकता को जो अपनाते हैं,ऐसे ही सन्त प्रामाणिक माने जाते हैं और उन्हीं की नाव में बैठकर राहगीर पार उतरते हैं।

निष्कर्ष यही निकलता है कि कबीर की उलटबांसी रहस्यों, अध्यात्म, तत्व दर्शन से भरी हुई हैं जिसका मतलब काफी गूढ़ है।

कबीर ने इन सबका मतलब समझते हुए कई दोहे बनाए है, इसलिए वो सदा प्रमाणिक हैं।

उत्तर के अनुरोध के लिए धन्यवाद जी !

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मुझसे किसी ने एक उलटबांसी का अर्थ पूछा था , दिन में तारे दिखने लगे, तब सोचा, मै अकेला ही क्यों खपु, भाई लोगो को भी थोड़ा दिमाग पर जोर डालने दू, बस क्वोरा पर यह प्रश्न कर डाला ।

कबीर एक समग्र दर्शन का नाम है, जो "गागर में सागर " समेटे हुए है। कबीर की भाषा सधुक्कड़ी है। इस भाषा में खड़ी बोली, अवधी और ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है।

कबीर एक अनूठे संत रहे है , फक्कड़ किस्म के इंसान ,कोई लाग लपट नहीं, पाखंड के खिलाफ जो कहना है सीधे सीधे कह देते थे।

पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।

ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार।।

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।

ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥

मगर उनकी उल

कबीर भक्तिकालीन संतकाव्य धारा के शिखर कवि हैं। इनका व्यक्तित्व मूलतः भक्त का है लेकिन साथ ही ये संत, समाजसुधारक और कवि भी हैं। इनकी साधना पद्धति संश्लिष्ट थी , जिसकी शुरुआत योगमार्ग से हुई और ज्ञान मार्ग से गुजरते हुए अंततः भक्तिमार्ग पर समाप्त हुई। वाणी के डिक्टेटर कबीर साक्षर नहीं थे किंतु बहुश्रुत थे।

प्रखर अनुभूतिशील, तार्किक और क्रांतिकारी व्यक्तित्व के धनी कबीर के पास कोई निश्चित और पूर्व निर्धारित दार्शनिक सिद्धान्त नहीं था। बहुश्रुत कबीर ने विभिन्न दर्शनों को सुनते हुए इनके विभिन्न विचारों को अपने अनुसार ग्रहण किया। इनके ऊपर नाथपंथियों की योग साधना, सूफियों के भावनात्मक रहस्यवाद, शंकर के अद्वैतवाद, भारतीय औपनिषदिक चिंतन, वैष्णवों की जीवन - दृष्टि के साथ ही बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक दर्शनों का भी प्रभाव था। यहाँ हम यह देख सकते हैं कि कबीर अपनी अनुभूति के आधार पर परस्पर विरोधी मार्गों को भी अपने व्यक्तित्व में शामिल करने से परहेज नहीं करते और यह विशेषता कबीर को महान बनाती है।

कबीर की परवरिश नाथपंथियों की परंपरा के माहौल में हुई , अतः स्वाभाविक है कि इस परंपरा का प्रभाव इनके व्यक्तित्व पर भी पड़ा। इनको प्रचंड आत्मविश्वास, अक्खड़ता और अमायिकता जैसे गुण इसी परंपरा से प्राप्त हुए। साथ ही नाथ परंपरा की 'संधा भाषा' का भी प्रभाव इन पर था जो इनकी उलटबाँसी में दिखता है। सच तो यह है कि इनकी उलटबाँसियाँ नाथ परंपरा में प्रयुक्त संधा भाषा का ही विकसित रूप हैं। तो आइए पढ़ते हैं कबीर की उलटबाँसियाँ लेकिन उससे पहले संक्षिप्त में नाथ परंपरा की 'संधा भाषा' को समझ लेते हैं।

नाथों में एक विशेष प्रकार की साधना पद्धति पर बल दिया गया, जिसे 'हठयोग' पद्धति कहते हैं। इसका अर्थ है कि योग की साधना के माध्यम से इंद्रियों के स्वभाव को पलट देना। अपनी इन्हीं अन्तः साधनात्मक अनुभूतियों को इन्होंने एक विशेष प्रकार की प्रतीकात्मक भाषा के रूप में व्यक्त किया , जिसे 'संधा भाषा' कहते हैं। इस भाषा में साधारण भाषा के विपरीत उक्तियाँ मिलती हैं, जो प्रतीकार्थ खुलने पर ही स्पष्ट होती हैं। जैसे " नाथ बोलै अमृत वाणी, बरिसैगी कम्बली भीजैगा पाणी" ।

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