Hindi, asked by narpatsinsh198, 5 months ago

३. टिप्पणी लिखो।
(१) छायाचित्र (फोटो)​

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Answered by rashidalam7766
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यायावरी यात्राओं के सुखों में एक सुख तो यह है ही कि निकलें किसी चीज़ की खोज में और मिल जाये कोई बिलकुल दूसरी ही चीज़। लेकन जीवन-भर यायावरी करते रहकर भी उस कल्पनातीत आविष्कार के लिए मैं तैयार नहीं था जो इस बार राम-जानकी यात्रा के दौरान अकस्मात हुआ। यह तो जानता था कि रामायण के चरित्रों से सम्बद्ध जिन स्थलों की खोज में निकला हूँ उनके ऐसे अवशेष तो क्या ही मिल सकते हैं जिन्हें 'ऐतिहासिक' कहा जाए; और यह भी जानता था कि ऐसे बहुत से स्थल मिल जाएँगे जिनका रामायण से कोई वास्तविक सम्बन्ध रहा हो या न रहा हो, लेकिन उन्हें देखकर एकाएक यह मानने को जी होने लगे कि कुछ सम्बन्ध जरूर रहा होगा! खासकर नेपाल तराई के जंगली और नदी-नालों-भरे प्रदेश में से गुजरते हुए तो मन ऐसा हो गया था कि किसी भी स्थल से जुड़ी किसी असुर की, गन्धर्व की, अप्सरा की, किरात अथवा नागकन्या की गाथा सुनकर एकाएक यह प्रतिक्रिया न होती कि यह सब मनगढ़न्त है, ऐसा वास्तव में हुआ नहीं होगा, केवल आदिम-मानव की कच्ची कल्पना ने ये किस्से गढ़े होंगे। निश्चय ही स्थलों का अपना जादू होता है। ठोस व्यावहारिक आदमी भी ऐसे स्थलों पर पहुँचकर पाता है कि उसकी कल्पना चेत उठी है। फिर उसे अपनी संस्कृति के पुराण की ही बातें क्यों, दूसरी संस्कृतियों के पुराण भी सच्चे जान पडऩे लगते हैं-उनके भी वन-देवता और लता-बालाएँ और नदी-अप्सराएँ देखते-देखते उसके आगे रूप लेने लगती हैं।

वाल्मीकि नगर में ठहरे हुए हम लोग जंगल में वे सब स्थल देख रहे थे जो हमें 'वाल्मीकि आश्रम' के नाम से दिखाये गये थे। उन्हें देखकर वही दोहरी प्रतिक्रिया हुई थी-एक तरफ तो यह कि दिखाये गये सारे अवशेष बहुत पुराने होंगे तो पूर्व-मध्य-काल के होंगे, उससे ज्यादा पुराने नहीं हो सकते; दूसरी तरफ़ उतनी ही प्रबल यह प्रतीति कि ये स्थल तो निश्चय ही ऐसे हैं कि यहाँ कभी ऋषि का आश्रम रहा हो। न सही ये ही प्रस्तर-खंड और भग्नावशेष-पर स्थलों की अपनी भी तो रहस्यवेष्टित ऊर्जा होती है, जिसके कारण बार-बार उन्हीं स्थलों पर फिर दूसरे आश्रम और तीर्थ और मन्दिर बनते हैं...अपने दल के साथ इस प्रस्तावित वाल्मीकि आश्रम की सैर करके मन-ही-मन तय किया कि अगले दिन बड़े सवेरे अकेले निकलकर आएँगे और हो सका तो मनोयोग करके अपने को उन ऊर्जा स्रोतों से जोड़ेंगे। मन में कहीं ऐसा विश्वास तो था ही (और अब भी है) कि ऐसे किसी स्थल पर से गुजरूँगा तो जरूर उसकी ऊर्जा-रेखाओं के जाल-में प्रवेश करने का बोध मुझे हो जाएगा...

अगले दिन बड़े सवेरे अकेले ही फिर उधर को निकल आया। कुछ कोहरा था, सूर्योदय अभी नहीं हुआ था, लेकिन भोर का प्रकाश कोहरे को ही एक निरन्तर बदलते हुए रहस्यमय छायाचित्र का रूप दे रहा था, बल्कि रह-रहकर मुझे सन्देह हो आता था कि कहीं मैं भटक तो नहीं गया हूँ? अपने जाने तो उसी परिचित रास्ते से आया था, पर सब कुछ नया ही जान पड़ रहा था।

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