History, asked by yadavshanti2705, 6 hours ago

टीपू सुल्तान की उपलब्धियों की व्याख्या कीजिए​

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Answered by YourQueen00
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Explanation:

टीपू सुल्तान को इतिहास न केवल एक योग्य शासक और योद्धा के तौर पर देखता है बल्क‍ि वो विद्वान भी था। उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था। अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान की मौत हो गई।

Answered by anuradhajaiswal2008
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Answer:

टीपू सुल्तान को इतिहास न केवल एक योग्य शासक और योद्धा के तौर पर देखता है बल्क‍ि वो विद्वान भी था। उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था। अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान की मौत हो गई

Explanation:

दी मैसूर गजेतिअर" में लिखा है"टीपू ने लगभग १००० मंदिरों का ध्वस्त किया। २२ मार्च १७२७ को टीपू ने अपने एक सेनानायक अब्दुल कादिर को एक पत्र likha ki,"१२००० से अधिक हिंदू मुस्लमान बना दिए गए

।"

टीपू सुल्तान की कब्र?

गुम्बज़-इ-शाही, श्रीरंगपटना, गंजम

इसके पीछे मेलकोट के रहने वाले श्रीनिवास बताते हैं कि दिवाली के दिन टीपू सुल्तान ने 800 ब्राह्मणों को फांसी पर चढ़ाया था और वह ब्राह्मण हमारे पूर्वज थे. फांसी पर चढ़ाए जाने की वजह पूछने पर श्रीनिवास कहते हैं कि टीपू सुल्तान ने इसलिए ब्राह्मणों को मारा क्योंकि उन्होंने धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया था.

20 नवंबर 1750 में कर्नाटक के देवनाहल्ली में जन्मे टीपू का पूरा नाम सुल्तान फतेह अली खान शाहाब था। उनके पिता का नाम हैदर अली और माँ का फकरुन्निसाँ था। उनके पिता मैसूर साम्राज्य के एक सैनिक थे लेकिन अपनी ताकत के बल पर वो 1761 में मैसूर के शासक बने।

टीपू सुल्तान विद्वान,योग्य शासक और योद्धा था. वह महत्वाकांक्षी होने के साथ ही कुशल सेनापति भी था. अंग्रेजों के हाथों हुई अपने पिता की पराजय का वह बदला लेना चाहता था. टीपू के साहस से अंग्रेज भी भयभीत थे

मध्यकालीन इतिहास की अलग-अलग व्याख्याएं (Different interpretations of medieval history) की जाती हैं और कई मामलों में, एक ही व्यक्ति कुछ समुदायों के लिए नायक और कुछ के लिए खलनायक होता है।

टीपू के मामले में स्थिति और भी जटिल है। पहले, हिन्दू राष्ट्रवादी भी टीपू को नायक के रूप में देखते थे। सन 1970 के दशक में, आरएसएस द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओं की श्रृंखला ‘भारत भारती’ में टीपू का महिमागान किया गया था। सन 2010 में आयोजित एक रैली में, कुछ भाजपा नेता टीपू के भेष में अपने हाथों में तलवार लिए मंच पर विराजमान थे।

हमारे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, जो कि आरएसएस की भट्टी में तप कर निकले हैं, ने कुछ ही वर्ष पूर्व टीपू के साहस की प्रशंसा करते हुए कहा था कि टीपू ने उस काल में मिसाइलों का प्रयोग किया था। अब, जब कि कर्नाटक में साम्प्रदायिकता ने गहरी जड़ें जमा लीं हैं, टीपू को हिन्दू-विरोधी आततायी शासक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का शिकार हुए टीपू सुल्तान – Tipu Sultan succumbed to the British ‘divide and rule’ policy

पिछले कुछ समय से जहां कांग्रेस टीपू का इस्तेमाल मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कर रही है वहीं भाजपा, हिन्दुओं के वोट हासिल करने के लिए टीपू के दानवीकरण में जुटी है।

इस राजा के व्यक्तित्व और कार्यों के बारे में गहराई और निष्पक्षता से पड़ताल करने से यह साफ हो जाता है कि टीपू, दरअसल, अंग्रेजों की इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या पर आधारित ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का शिकार हुए।

साम्प्रदायिक तत्व मध्यकालीन इतिहास की चुनिंदा घटनाओं को अनावश्यक महत्व देकर धर्म के आधार पर इस काल के राजाओं को नायक और खलनायक सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। सच यह है कि ये सभी राजा केवल अपने साम्राज्य को बचाए रखने और उसका विस्तार करने के लिए प्रयासरत थे और इसी उद्देश्य से उनमें से कुछ ने मंदिर तोड़े तो कुछ ने मंदिरों का संरक्षण किया।

Tipu sultan History

टीपू सुल्तान, मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे। टीपू को अहसास था कि मुगलों के कमजोर पड़ने से ईस्ट इंडिया कंपनी की राह आसान हो गई है। उन्होंने मराठाओं, रघुनाथ राव पटवर्धन और निजाम से अपील की कि वे अंग्रेजों का साथ न दें। उन्हें एक विदेशी ताकत के देश में जड़े जमाने के खतरे का अहसास था।

मराठा और टीपू और निजाम और टीपू एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे। ये तीनों अपने राज्य का विस्तार करना चाहते थे। पटवर्धन की सेना ने सन् 1791 में मैसूर पर हमला किया और श्रृंगेरी मठ को लूट लिया।

यह दिलचस्प है कि टीपू ने कीमती तोहफे भिजवाकर इस मठ का पुनरोद्धार किया। वे श्रृंगेरी मठ के मुख्य ट्रस्टी थे और इस मठ के स्वामी को जगदगुरू कहकर संबोधित करते थे। अपने सैन्य अभियानों के पहले वे मठ के स्वामी का आशीर्वाद लिया

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