तेरे ही नालि सरोवर पानी में तेरे किसके लिए कहा गया है ?
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Explanation:
भक्ति आंदोलन को जिन्होंने जन-जन में पहुँचाया उनमें एक संत कबीरदास भी थे। जनश्रुति है कि काशी के जुलाहा दंपति नीरू और नीमा ने इस अबोध परित्यक्त शिशु को कहीं पडा पाया और इसका लालन-पालन किया। कबीर भी जुलाहे का काम करने लगे, किंतु मन किसी परम-तत्व की खोज में भटकता रहता। अंत में इन्होंने रामानंद को गुरु बनाया। 'काशी में हम प्रकट भए हैं रामानंद चेताए। उस समय देश के हिंदू और मुसलमानों में कट्टरता और आडंबर व्याप्त था।
कबीर ने इन्हें खुली फटकार सुनाई और एक नया मानव धर्म सिखाया जो 'कबीर पंथ कहलाया। इन्होंने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की और भक्ति को प्रधानता दी। आत्मा और परमात्मा को प्रेयसी और प्रियतम की संज्ञा दी जो सूफी मत का प्रभाव था।
कबीर की रचनाएँ (साखी, सबद और रमैनी) बीजक ग्रंथ में संग्रहीत हैं। इनकी भाषा बोल-चाल की सधुक्कडी ब्रजभाषा है जिसमें पूरवी का पुट है। इसमें प्रेम की पीर तथा उच्चतम तत्व दर्शन के साथ-साथ कवित्वमयता भी है। कबीर संत, सुधारक तथा कवि हृदय रखने वाले महापुरुष थे।
पद
काहे री नलिनी तू कुमिलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहे 'कबीर जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान।
मन मस्त हुआ तब क्यों बोलै।
हीरा पायो गाँठ गँठियायो, बार-बार वाको क्यों खोलै।
हलकी थी तब चढी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोलै।
सुरत कलाली भई मतवाली, मधवा पी गई बिन तोले।
हंसा पायो मानसरोवर, ताल तलैया क्यों डोलै।
तेरा साहब है घर माँहीं बाहर नैना क्यों खोलै।
कहै 'कबीर सुनो भई साधो, साहब मिल गए तिल ओलै॥
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत 'कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥
झीनी-झीनी बीनी चदरिया,
काहे कै ताना, काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।
साँई को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक कै बीनी चदरिया॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी, ओढि कै मैली कीनी चदरिया।
दास 'कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया॥
मन लागो मेरो यार फकीरी में।
जो सुख पावौं राम भजन में, सो सुख नाहिं अमीरी में।
भली बुरी सबकी सुनि लीजै, कर गुजरान गरीबी में॥
प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि-बनि आई सबूरी में।
हाथ में कूंडी बगल में सोंटा, चारों दिस जागीरी में॥
आखिर यह तन खाक मिलैगो, कहा फिरत मगरूरी में।
कहत 'कबीर सुनो भई साधो, साहिब मिलै सबूरी में॥
कबीर की साखियाँ
गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दिया बताय॥
सिष को ऐसा चाहिए, गुरु को सब कुछ देय।
गुरु को ऐसा चाहिए, सिष से कुछ नहिं लेय॥
कबिरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की बास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तौ भी बास सुबास॥
साधु तो ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देइ उडाय॥
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है गढ-गढ काढै खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर मारै चोट॥
कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय।
रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय॥
जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास।
जो है जाको भावता, सो ताही के पास॥
प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस।
तन में मन में नैन में, ताको कहा संदेस॥
नैनन की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय।
पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय॥
गगन गरजि बरसे अमी, बादल गहिर गँभीर।
चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भीजै दास कबीर॥
जाको राखै साइयाँ, मारि न सक्कै कोय।
बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥
नैनों अंतर आव तूँ, नैन झाँपि तोहिं लेवँ।
ना मैं देखौं और को, ना तोहि देखन देवँ॥
लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल॥
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढै बन माहिं।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं।
सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर होय।
जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय॥
जिन ढूँढा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ।
जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ॥
बिरहिनि ओदी लाकडी, सपचे और धुँधुआय।
छूटि पडौं या बिरह से, जो सिगरी जरि जाय॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।
प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं॥
लिखा-लिखी की है नहीं, देखा देखी बात।
दुलहा दुलहिनि मिलि गए, फीकी परी बरात॥
रोडा होइ रहु बाटका, तजि आपा अभिमान।
लोभ मोह तृस्ना तजै, ताहि मिलै भगवान॥
कबीरदास
विरह का अंग
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां |
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां ||1||
भावार्थ - संदेसा भेजते-भेजते मेरा अंदेशा जाने का नहीं,
अन्तर की कसक दूर होने की नहीं,
यह कि प्रियतम मिलेगा या नहीं, और कब मिलेगा; हाँ यह अंदेशा दूर हो सकता है
दो तरह से - या तो हरि स्वयं आजायं, या मैं किसी तरह हरि के पास पहुँच जाऊँ
यहु तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं |
लेखणिं करूं करंक की, लिखि-लिखि राम पठाउं ||2||
भावार्थ - इस तन को जलाकर स्याही बना लूँगी, और जो कंकाल रह जायगा,
उसकी लेखनी तैयार कर लूँगी |
उससे प्रेम की पाती लिख-लिखकर अपने प्यारे राम को भेजती रहूँगी |
ऐसे होंगे वे मेरे संदेसे |
बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ |
राम-बियोग ना जिबै जिवै तो बौरा होइ ||3||
भावार्थ - बिरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा है, डसता ही रहता है सदा,
कोई भी मंत्र काम नहीं देता | राम का वियोगी जीवित नहीं रहता , और जीवित रह
भी जाय तो वह बावला हो जाता है |