टूटी है तेरी कब समाधि
झंझा लौटे शत हार-हार
बह चला द्रगों से किन्तु नीर
सुनकर जलते कण की पुकार
सुख से विरक्त दुख में समान ।
Answers
संदर्भ = यह पंक्तियां महादेवी वर्मा द्वारा रचित हिमालय शीर्षक कविता से उद्धृत की गई हैं। इन पंक्तियों में कवियत्री महादेवी वर्मा ने हिमालय की दृढ़ता और हिमालय की कोमलता के समन्वय का सुंदर शब्दों में वर्णन किया है।
भावार्थ = महादेवी वर्मा कहती हैं कि उन्होंने हिमालय को एक समाधिरत योगी के रूप में देखा और समझा है। वह तपस्वीरूपी हिमालय को संबोधित करते हुए कहती हैं कि हे हिमालय! तुमसे ना जाने कितनी आंधी-तूफान टकराते रहते हैं लेकिन तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाते और तुम्हारी दृढ़ता के आगे हार मान कर वापस लौट जाते हैं, और तुम एकदम अविचल होकर अडिग भाव से खड़े रहते हो।
तुम तपस्वी की तरह अपनी समाधि में लीन रहते हो। तुम बिल्कुल उस तपस्वी की तरह हो जिस पर बाहर के सुख-दुख मुसीबत से कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह अपनी तपस्या में लीन रहता है। जहाँ तुम इतने दृढ़ इच्छाशक्ति वाले हो वही तुम्हारा हृदय बड़ा ही कोमल है और इसी कोमलता के कारण तो छोटे से धूल के जलते की करुण पुकार को सुन नहीं पाते और तुम्हारी आंखों से करुणा के जलधारा के रूप में बहने लगते हैं।
जहां तुम में अडिग दृढ़ता है, वही तुमने असीम कोमलता भी है। सुख और भोग में तुम्हारी कोई आसक्ति नहीं और दोनों स्थितियों में तुम समान रहते हो। यही समान भाव तुम्हारी महानता को दर्शातें हैं।
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