History, asked by rajprashant00, 8 months ago

तृतीय स्टेट के लोगों ने क्या मांग रखी थी यह मांग वर्तमा

न सामाजिक और राजनीतिक
स्थिति से किसी से किस प्रकार संबंधित है​

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Answered by shishir303
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जब फ्रांस के सम्राट लुई सोलहवें ने करों के वृद्धि प्रस्ताव को पारित कराने के लिए एक मीटिंग बुलाई तो उसमें के फ्रांस की तीनों स्टेट जनरल को इस मीटिंग में बुलाया गया। इस मीटिंग में  हर स्टेट को एक वोट करने का अधिकार था। तब तृतीय स्टेट ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। क्योंकि तृतीय स्टेट की लोगों ने यह मांग रखी कि हर स्टेट के हर सदस्य को वोट करने का अधिकार होना चाहिए ना कि पूरी स्टेट को केवल 1 वोट करने का अधिकार हो। उनकी इस मांग को फ्रांस के सम्राट ने अस्वीकार कर दिया, इसके विरोध स्वरूप तृतीय स्टेज के सदस्यों ने उस मीटिंग से वॉक आउट कर दिया।

यह मांग वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक इस प्रकार संबंधित है, कि उस समय तृतीय स्टेट के सदस्यों ने हर सदस्य के लिये वोट देने के अधिकार की मांग की थी, न कि एक पूरे समूह को केवल एक वोट के रूप में गिना जाये। इस मांग से हर व्यक्ति विशेष को महत्व मिलता और जनता की वास्तिवक शक्ति का भी पता चलता।

एक पूरे समूह को ही केवल एक वोट मान लेना, व्यक्ति की पहचान को सीमित करना था, जो लोकतंत्र के विकास में बाधक है।

आज जहाँ भी लोकतंत्र है, वहाँ हर व्यक्ति को स्वतंत्र निजी अधिकार मिलता है, इससे उस व्यक्ति की पहचान एक समूह के अंदर न सिमट कर स्वतंत्र रूप से विकसित होती है।

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1789 फांस के राजा ने एस्टेट जनरल की मीटिंग कियों बुलाई गई थी

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Answered by Anonymous
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Answer:

तृतीय स्टेट के लोगों ने क्या मांग रखी थी यह मांग वर्तमा न सामाजिक और राजनीतिक

स्थिति

Explanation:

राजनीतिक परिस्थितियाँ

क्रांति की पूर्व संध्या पर लुई 16वें (1774 - 93) का शासक था। वह एक अकर्मण्य और अयोग्य शासक था। उसने भी स्वेच्छाचारित और निरंकुशता का प्रदर्शन किया। उसने कहा कि "यह चीज इसलिए कानूनी है कि यह मैं चाहता हूं।" अपने एक मंत्री के त्यागपत्र के समय उसने कहा कि-काश! मैं भी त्यागपत्र दे पाता। उसकी पत्नी मेरी एन्टोनिएट का उस पर अत्यधिक प्रभाव था। वह फिजूलखर्ची करती थी। उसे आम आदमी की परेशानियों की कोई समझ नहीं थी। एक बार जब लोगों का जुलूस रोटी की मांग कर रहा था तो उसने सलाह दी कि यदि रोटी उपलब्ध नहीं है तो लोग केक क्यों नहीं खाते।

इस तरह देश की शासन पद्धति पूरी तरह नौकरशाही पर निर्भर थी। जो वंशानुगत थी। उनकी भर्ती तथा प्रशिक्षण के कोई नियम नहीं थे और इन नौकरशाहों पर भी नियंत्रण लगाने वाली संस्था मौजूद नहीं थी। इस तरह शासन प्रणाली पूरी तरह भ्रष्ट, निरंकुश, निष्क्रिय और शोषणकारी थी। व्यक्तिगत कानून और राजा की इच्छा का ही कानून लागू होता था। फलतः देश में एक समान कानून संहिता का अभाव तथा विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कानूनों का प्रचलन था। इस अव्यवस्थित और जटिल कानून के कारण जनता को अपने ही कानून का ज्ञान नहीं था। इस अव्यवस्थित निरंकुश तथा संवेदनहीन शासन तंत्र का अस्तित्व जनता के लिए कष्टदायी बन गया। इन उत्पीड़क राजनीतिक परिस्थितियों ने क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। फ्रांस की अराजकपूर्ण स्थिति के बारें में यू कहा जा सकता है कि "बुरी व्यवस्था का तो कोई प्रश्न नहीं, कोई व्यवस्था ही नहीं थी।"

सामाजिक परिस्थितियाँ

क्रांति के कारणों को सामाजिक परिस्थितियों में भी देखा जा सकता है। फ्रांसीसी समाज विषम और विघटित था। वह समाज तीन वर्गों/ स्टेट्स में विभक्त था। प्रथम स्टेट्स में पादरी वर्ग, द्वितीय स्टेट्स में कुलीन वर्ग एवं तृतीय स्टेट्स में जनसाधारण शामिल था। पादरी एवं कुलीन वर्ग को व्यापक विशेषाधिकार प्राप्त था जबकि जनसाधारण अधिकार विहीन था।

(क) प्रथम स्टेट : पादरी वर्ग दो भागों में विभाजित था-उच्च एवं निम्न। उच्च वर्ग के पास अपार धन था। वह "टाइथ" नामक कर वसूलता था। ये शानों शौकत एवं विलासीपूर्ण जीवन बिताते थे, धार्मिक कार्यों में इनकी रूचि कम थी। देश की जमीन का पांचवा भाग चर्च के पास ही था और ये पादरी वर्ग चर्च की अपार सम्पदा का प्रयोग करते थे। ये सभी प्रकार के करों से मुक्त थे इस तरह उनका जीवन भ्रष्ट, अनैतिक और विलासी था। इस कारण यह वर्ग जनता के बीच अलोकप्रिय हो गया था और जनता के असंतोष का कारण भी बन रहा था। दूसरा साधारण पादरी वर्ग था जो निम्न स्तर के थे। चर्च के सभी धार्मिक कार्यों को ये सम्पादित करते थे। वे ईमानदार थे और सादा जीवन व्यतीत करते थे। अतः उनके जीवन यापन का ढंग सामान्य जनता के समान था। अतः उच्च पादरियों से ये घृणा करते थे और जनसाधारण के प्रति सहानुभूति रखते थे। क्रांति के समय इन्होंने क्रांतिकारियों को अपना समर्थन दिया।

(ख) द्वितीय स्टेट : कुलीन वर्ग द्वितीय स्टेट में शामिल था और सेना, चर्च, न्यायालय आदि सभी महत्वपूर्ण विभागों में इनकी नियुक्ति की जाती थी। एतदां के रूप में उच्च प्रशासनिक पदों पर इनकी नियुक्ति होती थी और ये किसानों से विभिन्न प्रकार के कर वसूलते थे और शोषण करते थे। यद्यपि रिशलू और लुई 14वें के समय कुलीनों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया था किन्तु आगे लुई 15वें और 16वें के समय से उन्होंने अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। यह कुलीन वर्ग भी आर्थिक स्थिति के अनुरूप उच्च और निम्न वर्ग में विभाजित थे।

(ग) तृतीय स्टेट : तृतीय स्टेट के लोग जनसाधारण वर्ग से संबद्ध थे जिन्हें कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। इनमें मध्यम वर्ग किसान, मजदूर, शिल्पी, व्यापारी और बुद्धिजीवी लोग शामिल थे। इस वर्ग में भी भारी असमानता थी। इन सभी वर्गों की अपनी-अपनी समस्याएं थी।

मध्यम वर्ग (बुर्जुआ) में साहुकार व्यापारी, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, लेखक, कलाकार, कर्मचारी आदि सम्मिलित थे। उनकी आर्थिक दशा में अवश्य ठीक थी फिर भी वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के प्रति आक्रोशित थे। इस वर्ग को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं था और पादरी और कुलीन वर्ग का व्यवहार इनके प्रति अच्छा नहीं था। इस कारण मध्यवर्ग कुलीनों के सामाजिक श्रेष्ठता से घृणा रखते था और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन कर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के इच्छुक था। यही कारण था कि फ्रांस की क्रांति में उनका मुख्य योगदान रहा और उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। मध्यवर्ग के कुछ आर्थिक शिकायतें भी थी। पूर्व के वाणिज्य व्यापार के कारण इस वर्ग ने धनसंपत्ति अर्जित कर ली थी किन्तु अब सामंती वातावरण में उनके व्यापार पर कई तरह के प्रतिबंध लगे थे जगह-जगह चुंगी देनी पड़ती थी। वे अपने व्यापार व्यवसाय के लिए उन्मुक्त वातावरण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि फ्रांस की क्रांति फ्रांसीसी समाज के दो परस्पर विरोधी गुटों के संघर्ष का परिणाम थी। एक तरफ राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली और दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली वर्ग थे। देश की राजनीति और सरकार पर प्रभुत्व कायम करने के लिए इन दोनों वर्गों में संघर्ष अनिवार्य था। इस तरह 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, फ्रांसीसी समाज में असमानता के विरूद्ध संघर्ष थी।

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