Hindi, asked by prashankumar098, 1 year ago

तकनीक से होने वाली हानिया

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Answered by Anonymous
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न जाने क्यूँ हम तेजी से बढ़ती हुई तकनीक के साथ नहीँ दौड़ पा रहे हैं । प्रतिदिन इलेक्ट्रॉनिक्स की दुनिया मेँ इतने नए गैजेट्स और सॉफ्टवेयर आते हैं कि समर्पित उपभोक्ता ही इसके साथ कंधा मिलाकर चल सकते हैं| हम भविष्य के दिनोँ का विचार करके चिंतित हो जाते हैं, जब हमारी कल्पना शक्ति की प्रत्येक वस्तु हमारी पहुंच मेँ होगी, प्रत्यक्ष नहीँ तो कम से कम स्क्रीन पर। देखा जाए तो आज हम दुनिया के किसी भी कोने से कोई भी वस्तु प्राप्त कर सकते हैं; बशर्ते हमारे पास पर्याप्त धन होना चाहिए।  बीत गए वो दिन जब लोगोँ का जीवन स्थानीय वस्तुओं पर निर्भर रहता था।चाहे लकड़ी का हल हो या 4g मोबाइल फोन, तकनीक इस दुनिया की एक अभिन्न अंग रही है । और इसके अपने लाभ हैं। परंतु आधुनिक विश्व मेँ इसका एक बडा खतरा भी है। तकनीकी प्रगति ने भोग विलास तथा मौज मस्ती को सरलता से प्राप्य बना दिया है।  मौज-मस्ती से हमारा अभिप्राय क्षणिक सुख से है।  हम सोचते है कि मौज-मस्ती ही हमारे हृदयों को स्थायी सुख एवं उपलब्धि प्रदान करेगा। वस्तुतः यह सोच एक बडी भूल है ।पहले ही भौतिक संसार के प्रलोभन मेँ जकड़ी आत्मा अज्ञानता के अंधेरे मेँ कैद है, ऊपर से तकनीकी प्रगति की बमबारी। यह प्रगति यदि शारीरिक रुप से नहीँ तो कम से कम मानसिक रुप से हमेँ मौज-मस्ती के अड्डो पर पहुंचा सकती है । अपने बंद कमरे मेँ बैठे हम दीवार जितनी बडी स्क्रीन पर, दुनिया मेँ हो रही घटनाएँ देख सकते हैं। परंतु हर समय बाहर देखने के कारण हम अपने अंदर देखना भूल गए हैं । परिणाम क्या है ? मनोरंजन के इतने साधन होते हुए भी हम बोर होते हैं। सदैव असंतोष छाया रहता है।शास्त्र, महान संत तथा स्वयं हमारे अनुभव सिखाते हैं की सुख के लिए इच्छित वस्तु प्राप्त करने पर भी सुख हमसे दूर बना रहता है । हमारी अतृप्त इच्छाएँ हमें अधिकाधिक प्राप्त करने के लिए उकसाती हैं।  हमारी स्थिति सुगंध की खोज मेँ भटक रहे उस हिरण के समान हो जाती है जो नहीँ जानता कि खुशबू के सुगंध का स्रोत उसके पेट मेँ है ।परंतु बारंबार असंतोष का अनुभव करने के बाद भी क्या मौज मस्ती के अवसरोँ को मना कर पाना संभव है? वेदिक शास्त्र इसका आश्वासन देते हैं।  मूल रुप से हम सब आत्मा हैं। भगवान श्री कृष्ण परमात्मा हैं ओर हम उनके अंश हैं। अपनी मूल स्थिति मेँ हमारे हृदय मेँ कृष्ण के प्रति सहज आकर्षण है । सृष्टि की कोई भी परिस्थिति उस आकर्षण को नष्ट नहीँ कर सकती । वह कुछ समय के लिए ढका अवश्य जा सकता है । वस्तुतः श्री कृष्ण के प्रति आत्मा का आकर्षण भौतिक संसार के सारे प्रलोभनों से कहीँ अधिक प्रबल है । परंतु जिद्दी बच्चों के समान हम श्रीकृष्ण से स्वतंत्र रहकर भोग करने के लिए कटिबद्ध हुए बैठे हैं । लोहा सहज चुंबक के प्रति आकर्षित होता है परंतु उसके ऊपर चढ़ा जंग उसे चुंबक से आकर्षित होने से रोक देता है । भगवान से अलग रहकर भोग करने की इच्छा जीवात्मा की चेतना पर चढ़ा जंग है।लोहा लोहे को काटता है । श्री कृष्ण के प्रति आकर्षण को जागृत करने मेँ तकनीकी प्रगति हमारी सहायता भी कर सकती है। बशर्ते हमेँ इस की कला का ज्ञान होना चाहिए।तकनीकी प्रगति का हमारे जीवन मेँ बहुमूल्य योगदान रहा है । हम उसके कृतज्ञ हैं । मशीनो का धन्यवाद करते है जिनमेँ छपी पुस्तकों से भगवान कृष्ण का ज्ञान प्राप्त होता है । हम उस जहाज को धन्यवाद देते हैँ जो श्रील प्रभुपाद को लेकर अमेरिका गया और उन हवाई जहाजों को भी जिन मेँ बैठकर श्रील प्रभुपाद ने पूरी पृथ्वी का भ्रमण करते हुए प्रचार किया।

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