tanhaji se milne waali sikh
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are u asking about the movie of tanha ji is it ???
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150 करोड़ की भव्य लागत से बनी ‘तानाजी : द अनसंग वॉरियर का बॉक्स ऑफिस पर क्या परिणाम होगा, मैं नहीं जानता। मैं ये भी नहीं जानना चाहूंगा कि पहले दिन इस फिल्म ने कैसा प्रदर्शन किया। मैं तो उस सम्मोहन में बंध जाना चाहता हूँ, जिसे निर्देशक ओम राउत ने क्रिएट किया है। मैं सत्रहवीं सदी में कोंढाणा की गगनचुम्बी ऊंचाई पर आधी रात हुआ मृत्यु का तांडव अनुभव करना चाहता हूँ। मैं उस आत्मीय समारोह का हिस्सा हो जाना चाहता हूँ, जिसमे शिवाजी महाराज ने स्वयं ताना जी के बलिदान के बाद उनके बेटे के विवाह की जिम्मेदारी एक पिता की तरह निभाई थी। जैसे ओम राउत ने शिवाजी राजे के कालखंड की कोई किताब मेरे सामने खोल दी है। दृश्य किसी सजीली कॉमिक बुक की तरह आ जा रहे हैं। कोंढाणा का युद्ध और स्वराज का स्वप्न जैसे पुनर्जीवित होकर मेरे सामने उपस्थित होकर प्रश्न कर रहे हैं। एक पीरियड फिल्म की सफलता इसमें ही निहित होती है कि वह दर्शक को ये महसूस करवाए कि वह किसी कालखंड की कहानी देखते-देखते उसका ही हिस्सा बन गया है।
सबसे पहले तो बात कहानी की। तानाजी मालुसरे मराठा साम्राज्य के निष्ठावान सैनिक और शिवाजी महाराज के बालसखा थे। उस समय शिवाजी औरंगजेब से एक सुलह वार्ता करने गए और धोखे से नज़रबंद कर लिए गए। बाद में पुरंदर की संधि के अनुसार उन्हें तेईस किले औरंगजेब को सौंपने पड़े। कोंढाणा का किला उनमे से एक था और लगभग अविजित था। ये दुर्ग तीन ओर से खतरनाक खाइयों से घिरा हुआ था। दुर्ग शिवाजी की माता जीजाबाई के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था क्योंकि उन्होंने जूते न पहनने की प्रतिज्ञा ले ली थी। तानाजी ने अपने प्राणों का बलिदान देकर दुर्ग को स्वतंत्र करवाया। उनके बलिदान पर ही शिवाजी के मुंह से वह वाक्य निकला, जो आज तक अजर-अमर है। ‘गढ़ आला पण सिंह गेला‘।
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