Tanu Sulphuric Amla copper plate per dala tha To Kya Hota Hai Hindi mein answer
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(स गं, अर्थात् गंधक)
आधुनिक विचारधारा के अनुसार सलफ़्यूरिक अम्ल के अणु की संरचना चतुष्फलक (tetrahedron) होती है, जिसमें गंधक का एक परमाणु केंद्र में और दो हाड्रॉक्सी समूह तथा दो ऑक्सीजन के परमाणु चतुष्फलक के कोणोंश् पर स्थित हैं। अम्ल के अणु की संरचना में गंधक-ऑक्सीजन बंध का अंतर 1.51 ऐं. (ऐंग्सट्रॉम इकाई) होता है। शत प्रतिशत शुद्ध सलफ़्यूरिक अम्ल का घनत्व 15 सें. पर 1.8384 ग्राम प्रति मिलिलिटर होता है। सलफ़्यूरिक अम्ल को गरम करने से उससे सल्फ़र ट्राइऑक्साइड का वाष्प निकलने लगता है तथा अम्ल का 290 सें. से क्वथन प्रारंभ हो जाता है। क्वथनांक में तब तक वृद्धि होती जाती है, जब तक ताप 317 सें. नहीं पहुंच जाता। इस ताप पर सलफ़्यूरिक अम्ल 98.54 प्रतिशत रह जाता है। उच्च ताप पर सलफ़्यूरिक अम्ल का विघटन शुरु हो जाता है और जैसे जैसे ताप ऊपर उठता है विघटन बढ़ता जाता है। सांद्र सलफ़्यूरिक अम्ल जल के साथ सलफ़्यूरिक अम्ल मोनोहाइड्रेट, गलनांक 8.47 सें., सलफ़्यूरिक अम्ल डाइहाइड्रेट, गलनांक 39.46 सें. तथा सलफ़्यूरिक अम्ल टेट्राहाइड्रेट, गलनांक 28.25 सें., बनाता है। जल के साथ क्रिया के फलस्वरूप प्रति ग्राम सांद्र अम्ल 205 कैलोरी उष्म का उत्पादन करता है। सांद्र अम्ल कार्बनिक पदार्थों, लकड़ी तथा प्राणियों के ऊतकों से जल खींच लेता है, जिसके फलस्वरूप कार्बनिक पदार्थों का विघटन हो जाता है और अवशेष के रूप में कोयल रह जाता है। सलफ़्यूरिक अम्ल लवण बनाता है, जिसे सल्फ़ेट कहते हैं। सल्फ़ेट सामान्य या उदासीन लवण होते हैं, जैसे सामान्य सोडियम सल्फ़ेट (Na2SO4) या अम्लीय सोडियम बाइसल्फ़ेट (NaHSO4)। अम्लीय इसलिए कि इसमें अब भी एक हाइड्रोजन रहता है, जो क्षारकों से प्रतिस्थापित हो सकता है। धातुओं, धातुओं के ऑक्साइडों, हाइडॉक्साइडों, कार्बोनेटो या अन्य लवणों पर अम्ल की क्रिया से सल्फ़ेट बते हैं। अधिकांश सल्फेट जलविलेय होते हैं। केवल कैल्सियम, बेरियम, स्ट्रौंशियम और सीस के लवण जल में अविलेय या बहुत कम विलेय होते हैं। अनेक लवण औद्योगिक महत्व के हैं। बेरियम और सीस सल्फ़ेट वर्णक के रूप में, सोडियम सल्फ़ेट कागज निर्माण में, कॉपर सल्फ़ेट कीटनाशक के रूप में और कैल्सियम सल्फ़ेट प्लास्टर ऑव पैसि के रूप में प्रयुक्त होते हैं। सीस और इस्पात पर सांद्र अम्ल की कोई क्रिया नहीं होती। अत: अम्ल के निर्माण में तथा अम्ल को रखने के लिए सीस तथा इस्पात के पात्र प्रयुक्त होते हैं।
बड़े पैमाने पर सल्फ़्यूरिक अम्ल के निर्माण का पहला कारखाना 1740 ई. में लंदन के समीप रिचमंड में वार्ड नामक वैज्ञानिक द्वारा स्थापित किया गया था। निर्माण के लिए गंधक तथा शोरे के मिश्रण को लोहे के पात्र में गरम किया जाता था और अम्ल के वाष्प को काँच के पात्रों में जिनमें जल भरा रहता था, एकत्र किया जाता था। इस प्रकार से प्राप्त तनु अम्ल को बालु ऊष्मक के ऊपर काँच के पात्रों में सांद्र किया जाता था। कुछ समय पश्चात् शीघ्र टूटनेवाले काँच के पात्रों के स्थान पर छह फुट चौड़े सीस कक्षों का प्रयोग होने लगा। होल्केर नामक वैज्ञानिक के अयक परिश्रम द्वारा 1810 ई. में आधुनिक सीसकक्ष विधि का प्रयोग प्रारंभ हुआ। 1818 ई. से सल्फर डाइऑक्साइड की प्राप्ति के लिए कच्चे माल गंधक के स्थान पर पाइराइटीज़ नामक खनिज का प्रयोग होने लगा। 1827 ई. में गे-लुपैक स्तंभ तथा 1859 ई. में ग्लोब्रर स्तंभ के विकास द्वारा सीस-कक्ष-विधि का आधुनिकीकरण हुआ। यहाँ नाइट्रोजन के ऑक्साइड, सल्फ़र डाइऑक्साइड तथा वायु को कक्ष में प्रवेश कराया जाता है। ऐसे गैस मिश्रण को 25 फुट ऊँचे ग्लोवर स्तंभ में नीचे से प्रवेश कराया जाता है। इस स्तंभ में ऊपर से गे-लुसैक स्तंभ का सल्फ़्यूरिक अम्ल तथा नाइट्रोसिल सल्फ़्यूरिक अम्ल का मिश्रण टपकता है। स्तंभ से निकलकर गैस मिश्रण सीस कक्ष में प्रवेश करता है। साधारणतया सीस कक्ष तीन रहते हैं। यहाँ कक्ष में भाप भी प्रवेश करता है। गैस मिश्रण और भाप के बीच क्रिया होकर, सल्फ़्यूरिक अम्ल बनकर, कक्ष के पेंदे में इकट्ठा होता है। अवशिष्ट गैसे अब गे-लुसैक स्तंभ में प्रवेश करती हैं। इनमें प्रधानतया नाइट्रोजन के ऑक्साइड रहते हैं। गे-लुसैक स्तंभ कोक या पत्थर के टुकड़ों से भरा रहता है। उसमें ऊपर से सल्फ़्यूरिक अम्ल टपकता है और रुकावट के कारण धीरे धीरे गिरकर, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों को अवशोषित कर, नाइट्रोसिल सल्फ़्यूरिक अम्ल बनता है और ग्लोवर स्तंभ में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की क्षति बचाई जाती है। सीस कक्ष से प्राप्त अम्ल अशुद्ध होता है। अशुद्धियों में आर्सोनिक, नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा कुछ लवण होते हैं। ऐसा अम्ल प्रधानतया उर्वरक के निर्माण में प्रयुक्त होता है। इसके लिए शुद्ध अम्ल आवश्यक नहीं है। ऐसा अम्ल सस्ता होता है