Taro ke udit our ast hone ke bare kalpana
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संध्या धीरे - धीरे निशा की ओर अग्रसर हो रही थी | उस दिन मैं घर के आँगन में खटिया पर चारपाई डालकर लेटा हुआ एकटक आसमान की ओर निहार रहा था | मेरे मन में विचारों के माध्यम से कल्पनाएँ उठ रही थी | मैंने देखा कि संध्या ने निशारानी को उसका साम्राज्य थमा कर बिदा ले ली है | आकाश में अब तारों के उदित होने की बेला आ गई |
मैंने देखा कि तारे उग गए है | शुक्र का तारा किसी हीरे की भांति चमक रहा था | गुरु अपनी पीली आभा के साथ नभमंडल की शोभा बढ़ा रहा था | सप्तर्षि भी डेरा जमा चुके थे | जिन्हें देखकर मैं भावविभोर हो गया | वस्तुत: ये सप्तर्षि हमारे पूर्वज ही तो है | समूचा आसमान सहसा तारों से टिमटिमा उठा | उन्हें देखते -देखते कब मेरी आँख लग गयी मुझे पता भी नहीं चला |
सुबह 4: 45 पर जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि निशारानी अपनी चिरसंगिनी उषा सखी से मिलने जा रही है | मन फिर कल्पना करने लगा कि अब ये टिमटिमाते तारे अपने घर चले जायेंगे | शनै: - शनै: सितारों की रोशनी धुंधली पड़ने लगी वस्तुतः उषारानी का केसरिया विशाल वस्त्र समस्त नभमंडल को आच्छादित करने को आतुर था |
सहसा मुझे झपकी लगी और जागने पर मैंने देखा कि सभी तारों को सूरज के आने की भनक लग गयी और वे अपनी आभा चोरी न हो जाए इस आशंका के कारण छुप गयें | अब भोर ने दस्तक दे दी | निशारानी ने अपना सारा वैभव समेट लिया था | मैं भी कल्पना जगत से वास्तविक दुनिया में आ चुका था |